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• ( ३ ) 'विधिप्रतिषेधा - ऽनुष्ठान-पदार्थाविरोधेन च वर्तते' - अर्थात् अर्हत्प्रवचन यह योग्य विधिनिषेध, तदनुकूल आचार - अनुष्ठान, एवं तत्संगत पदार्थ-व्यवस्था से युक्त होने का कारण विधिनिषेधादि तीनों में परस्पर अबाधितता रखता है। सुवर्ण के कष - छेद - ताप - परीक्षा की तरह ये विधिनिषेध शास्त्रों की परीक्षाविधि हैं। इन तीनों में पूर्वापर बाधा न हो तो शास्त्र त्रिकोटिपरिशुद्ध कहा जाता है। इसका विवेचन पहले किया गया है। जगत में एकमात्र अर्हत्प्रवचन ही त्रिकोटिपरिशुद्ध है।
त्रिविध परीक्षार्थ शास्त्रवचनयुगल के दृष्टान्त :
अर्हत्प्रवचन में प्रतिपादित विधि-निषेध, अनुष्ठान - चर्या एवं पदार्थ - तत्त्व, इन तीनों में पूर्वापर बाध यानी विरोध नहीं है। अर्थात् विधि - निषेध पहेले कुछ किया, और बाद में अनुष्ठान, चर्या, आचार इससे विरुद्ध कुछ के कुछ फरमाए गए, अथवा पदार्थतत्त्व का स्वरूप तथा व्यवस्था ही ऐसी स्थापित की गई जिससे विधि - निषेध या अनुष्ठान सङ्गत न हो सके; - ऐसी कोई भी पूर्वापरबाधा अर्हत्प्रवचनविहित विधि - निषेध, अनुष्ठान, एवं पदार्थ, इन तीनों में लेश भी नहीं है। यहां इनके दृष्टान्त रूप से अर्हत्प्रवचन का एक विधिवाक्य, एक निषेधवाक्य, इन दोनों से अविरुद्ध अनुष्ठान - वाक्य, एवं अविरुद्ध पदार्थवाक्य, - इस प्रकार विधिनिषेध, अनुष्ठान और पदार्थ, तीनों के प्रत्येक के दो दो उदाहरणभूत वाक्य बतलाए जाते हैं।
विधिवाक्य :- 'स्वर्गकेवलार्थिना तपोध्यानादि कर्तव्यम्' - अर्थात्, स्वर्ग यानी सद्गति के अर्थी द्वारा तप, परमात्मपूजन आदि और मोक्ष के अभिलाषी द्वारा ध्यान - शास्त्राध्ययन इत्यादि 'किये जाने' योग्य है, कर्तव्य है ।
निषेधवाक्य :- 'सर्व्वे जीवा न हन्तव्याः' - अर्थात् किसी भी जीव की हिंसा मत करना। (तप, देवभक्ति आदि से पुण्यबन्ध होता है तो इससे स्वर्ग मिलता है। ध्यान-अध्ययनादि के द्वारा कर्मक्षय होने से मोक्ष प्राप्त होता है। और जीवहिंसा से दुर्गति मिलती है। इसलिए ऐसे विधि-निषेध फरमाये ।)
विधि से अविरुद्ध अनुष्ठानवाक्य., - 'असपत्नो योगः ' - अर्थात् स्वाध्यायादि चर्याएँ असपत्न याने परस्पर को बाध न पहुँचाये इस ढंग से अपने अपने काल में की जानी चाहिए। वैसा नहीं कि, दृष्टान्त से, आवश्यक क्रिया ऐसे अकाल में करे या इतना ज्यादा समय इसमें लगावे कि वह स्वाध्यायकाल को दबा दे । ठीक काल में आवश्यक, एवं ठीक काल में स्वाध्याय करे, जिससे परस्पर बाधा न हो; तभी ध्यान - अध्ययनादि की विधि का पालन अबाधित रहेगा; अन्यथा स्वाध्याय में स्खलना करने से अध्ययन की विधि पालित नहीं होगी। जिस धर्म में ऐसे असपत्न (परस्पर अबाधक) अनुष्ठान न बतलाते हुए किसी एक पर यदि जोर दिया है। वहां विधि-पालन अशक्य- दुःशक्य होगा । अर्हत्प्रवचन में ऐसा नहीं है ।
इस प्रकार जीवहिंसा के 'निषेधवाक्य से अविरुद्ध अनुष्ठान वाक्य' कहा - 'समितिगुप्तिशुद्धाक्रिया' अर्थात् सभी क्रिया पांच समिति एवं तीन गुप्ति के पालन द्वारा शुद्ध होनी चाहिए। पांच समिति में,
( १ ) ईर्यासमिति = गमनागमन-उठना बैठना सोना, इत्यादि में सावधानी रखनी ता कि जीवहिंसा न हो। (२) भाषासमिति = बोलने में मुखवस्त्रिका, सत्यता, पापरहितता, मधुरतादि का उपयोग रखना । (३) एषणासमिति = आहार पानी उपकरण में ४२ दोष रहित गवेषणा करनी ।
(४) आदानभण्डमत्तनिक्षेपणा समिति = पात्र मात्रकादि उपकरण लेते रखते वक्त चक्षु से
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