SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'पुक्खरवरदीवड्ढे०' (पुष्करवरद्वीपार्धे०) (ल०-) पुनश्च प्रथमपदकृताभिख्यं 'पुष्करवरद्वीपाईं पठति ( प्र०... विधिवत्पठति) पठन्ति वा । तस्येदानीमभिसम्बन्धो विवरणं चोनीयते; सर्वतीर्थकराणां स्तुतिरुक्ता, इदानीं तैरुपदिष्टस्याऽऽगमस्य, येन ते भगवन्तस्तदभिहिताश्च भावाः स्फुटमुपलभ्यन्ते । तत्प्रदीपस्थानीयं सम्यक्श्रुतमर्हति कीर्तनम् इतीद (प्र०... अत इद) मुच्यते, - 'पुक्खरवर' इत्यादि 'पुनरवरदीवड्ढे धायइसंडे य जंबुद्दीवे य । भरहेरवयविदेहे धम्माइगरे नमसामि ॥ १ ॥' व्याख्या,-पुष्कराणि पद्मानि, तैर्वरः प्रधानः पुष्करवरः पुष्करवरश्चासौ द्वीपश्चेति समासः, तस्यार्धं मानुषोत्तराचलार्वाग्भागवर्ति, तस्मिन् । अरिहंत-चैत्य; वे इस प्रकार, - अधोलोक में चमरेन्द्र (पातालवासी असुरकुमार इन्द्र) आदि के भवनों में, तिर्यग्लोक में द्वीप, पर्वत, ज्योतिष्कविमान, इत्यादि में, और ऊर्ध्वलोक में सौधर्म आदि के विमानों में यावत् अन्तिम अनुत्तर विमान तक अरिहंत चैत्य होते ही है। इसलिए यहां सर्व लोक के अर्हत्-चैत्य गृहित किये। मूल चैत्य समाधि का कारण है, इसलिए मूल प्रतिमा । (निकटवर्ती जिन मन्दिर की प्रतिमा) के अरिहंत पहले कायोत्सर्ग में गृहीत किये; और बाद में समस्त अरिहंत जो तद्गुण वाले यानी समाधिकारक होते हैं, इसलिए पहिले कायोत्सर्ग के बाद दूसरा कायोत्सर्ग सर्वलोक के अरिहंत के लिए किया जाता है। कायोत्सर्ग की चर्चा पूर्व के समान जानना । इसी प्रकार कायोत्सर्ग के बाद कहने की स्तुति की चर्चा भी पूर्व के समान है। मात्र इतना विशेष है कि यहां स्तुति सर्व तीर्थंकर भगवान की पढनी चाहिए; अन्यथा ऐसा होगा कि कायोत्सर्ग दूसरों का किया और स्तुति दूसरे की पढी गई! यह तो ठीक नहीं । ऐसा भी अगर स्वीकार लें तब तो अतिप्रसङ्ग होगा; - उदाहरणार्थ, सूत्रपठन में जो उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की जाती है, वहां भी उद्देश यदि इस प्रकार अन्य सूत्र का दिया जाए और पाठ दूसरे सूत्र का करे, तो फलतः सूत्र में उद्देशादि निरर्थक होंगे। (उद्देश = योगोद्वहन पूर्वक अमुक सूत्र पढने को गुर्वाज्ञा; समुद्देश = उसी सूत्र को स्थिर एवं परिचित करने की गुर्वाज्ञा; अनुज्ञा = उसीका सम्यग् धारण एवं दूसरों को पढ़ाने की गुर्वाज्ञा ।) इसलिए जैसे जिस सूत्र का उद्देश किया गया, उसीको पढना होता है, इस प्रकार यहां भी सर्व लोक के अरिहंत चैत्य का कायोत्सर्ग करके सर्व अरिहंत की स्तुति पढनी आवश्यक है; जीस किसी स्तुति का उच्चारण युक्तिविरुद्ध है। यह 'लोगस्स उज्जोअगरे' इत्यादि सूत्र की व्याख्या हुई। _ 'पुक्खरवरदीवड्ढे० ' (पुष्करवरद्वीपार्धे०) । सर्वजिन-स्तुति के बाद 'पुक्खरवरदीवड्ढे' सूत्र एक साधक (अनेक साधक हों तो उनमें से एक) पढता है। सूत्र का यह नाम सूत्र के पहले पद से किया गया है। अब इस सूत्र के उपन्यास का संबन्ध और इसीका विवेचन प्रदर्शीत किया जाता है। संबन्ध यह, कि सर्व तीर्थंकर देवों की स्तुति पहले पढी गई; अब उनके द्वारा उपदिष्ट आगम की स्तुति की जाती है, जिस आगम द्वारा उन भगवान और उनसे कथित पदार्थों का स्पष्ट बोध होता है। इसलिए जिनागम यानी सम्यक् श्रुत जो कि प्रदीप समान है वह कीर्तन योग्य है। इसलिए यह पढा जाता है, ३१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy