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________________ 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं' (ल०-) एवं चतुर्विंशतिस्तवमुक्त्वा सर्व्वलोक एवार्हच्चैत्यानां कायोत्सर्गकरणायेदं पठति पठन्ति वा, - 'सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गमित्यादि... जाव 'वोसिरामि' । व्याख्या पूर्ववत् । नवरं 'सर्व्वलोके अर्हच्चैत्यानाम्' इत्यत्र लोक्यते = दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति 'लोकः' चतुर्दशरज्जवात्मकः परिगृह्यते । उक्तं च,'धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ १ ॥' सर्वः खल्वधस्तिर्यगूर्ध्वभेदभिन्नः । सर्वश्चासौ लोकश्च सर्व्वलोकः, तस्मिन् सर्व्वलोके त्रैलोक्य इत्यर्थः। तथाहि, - अधोलोके चमरादिभवनेषु (प्र०...भेदेषु),तिर्यग्लोकेद्वीपाचलज्योतिष्कविमानादिषु, ऊर्ध्वलोके सौधर्मादिषु सन्त्येवाहच्चैत्यानि । ततश्च मौलं चैत्यं समाधेः कारणमिति मूलप्रतिमायाः प्राक्, पश्चात्सर्वेऽर्हन्तस्तद्गुणा इति सर्वलोकग्रहः । कायोत्सर्गचर्चः पूर्ववत् तथैव च स्तुतिः, नवरं सर्वतीर्थकराणाम्, अन्यथाऽन्यः कायोत्सर्गः अन्या स्तुतिरिति न सम्यक् । एवमप्येतदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गः, -स्यादेवमन्योद्देशेऽन्यपाठः तथा च निरर्थका उद्देशादयः सूत्रे, इति यत्किञ्चिदेतत् । व्याख्यातं लोकस्योद्योतकरानित्यादिसूत्रम् । प्रकाशकर; क्यों कि केवलज्ञान रूप प्रकाश से विश्व का प्रकाश करतें है। कहा गया है कि चन्द्र, सूर्य और ग्रहों की प्रभा परिमित क्षेत्र को प्रकाशित करती है, किन्तु केवलज्ञानी की ज्ञान-प्राप्ति लोकालोक को प्रकाशित करती है। तथा. 'सागरवरगंभीरा'-वहां सागरवर यानी सबसे बडा समद्र स्वयम्भरमण कहा जाता है, उसकी अपेक्षा भी गंभीर; क्यों कि परीसह और उपसर्गो से क्षोभायमान नहीं होते हैं; ऐसी घटना करनी । 'सिद्धा'-सित अर्थात् बद्ध कर्म ध्मात हुये हैं अर्थात् जल गए हैं जिनके वे सिद्ध; तात्पर्य कर्मनाश के कारण कृतकृत्य हुए। सिद्धि-परमपद मोक्ष की प्राप्ति । 'मम दिसंतु'-हमें दें। ऐसा गाथार्थ हुआ। पूरा अर्थ इस प्रकार है, - चन्द्रों की अपेक्षा भी अधिक निर्मल, सूर्यो की अपेक्षा भी अधिक प्रकाश कर, एवं स्वयंभूरमण सागर की अपेक्षा भी अधिक गंभीर एवं सिद्ध (कर्म नाश कर के कृतकृत्य हो चुके ऐसे २४ तीर्थंकर) मुझे मोक्ष दें। 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं' इस प्रकार 'चतुर्विंशतिस्तव' सूत्र का उच्चारण करके समस्त लोक में रहे हुए अरिहंत प्रभु के चैत्य (प्रतिमा) निमित्त कायोत्सर्ग करने के लिए एक या अनेक साधक 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं' से ले कर 'अप्पाणं वोसिरामि' तक पढते हैं। इसकी व्याख्या पूर्व के 'अरिहंत चेइयाणं..... वोसिरामि' सूत्र के समान है; लेकिन 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं' जो कहा गया, यहां 'लोक' शब्द का अर्थ है,- जिसका लोकन याने दर्शन केवलज्ञान रूप सूर्य से होता है वह लोक । यह यहां चौदह रज्जु प्रमाण १४ राजलोक स्वरूप ग्राह्य है। कहा है कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का जहां अवस्थान है, वह क्षेत्र उन द्रव्यों सहित लोक कहा जाता है; उससे विपरीत याने धर्मास्तिकायादि द्रव्यों से शून्य क्षेत्र का नाम अलोक है। 'सर्व' शब्द का अर्थ है अधो, तिर्यग और ऊर्ध्व तीनों प्रकार के भेद वाला । सर्व ऐसा जो लोक यह सर्व लोक । ऐसे सर्वलोक में अर्थात् त्रैलोक्य में रहे हुए ३१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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