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________________ (ल०-) तदर्थमेव च तावत् किम् ? अत आह (समाहिवरम् ), समाधानं समाधिः, स च द्रव्यभावभेदाद् द्विविधः । तत्र द्रव्यसमाधिः यदुपयोगात् स्वास्थ्यं भवति येषां वाऽविरोध इति । भावसमाधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययोगादिति । यतश्चायमित्थं द्विधा, अतो द्रव्यसमाधिव्यवच्छेदार्थमाह 'वरं' = प्रधानं भावसमाधिमित्यर्थः । असावपि तारतम्यभेदेनानेकधैव, अत आह'उत्तमं' = सर्वोत्कृष्टं, ददतु' = प्रयच्छन्तु । __ (ल०-निदानानिदानप्रश्न:-) आह-'किमिदं निदानमुत न ? इति । यदि निदानमलमनेन, सूत्रप्रतिषिद्धत्वात् । न चेत्, सार्थकमनर्थकं वा ? यद्याद्यः पक्षः, तेषां रागादिमत्त्वप्रसङ्गः, प्रार्थना प्रवणे (प्र०....प्रवीणे) प्राणिनि तथादानात् । अथ चरमः, तत आरोग्यादिप्रदानविकला एते इति जानानस्यापि प्रार्थनायां मृषावादप्रसङ्ग इति ।' प्रकार यहाँ भी वीतराग तीर्थंकर भगवान ऐसे कुछ अचिन्त्य प्रभाव वाले हैं कि उनकी स्तुति करने वालों के इष्ट की सिद्धि में वे मुख्य हेतु होते हैं । इष्टप्राप्ति में स्तुतिक्रिया की अपेक्षा स्तुति के विषय का महत्त्व है। गाथा ६ की व्याख्या :'कित्तियवंदियमहिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु ॥' 'कित्तिय' भगवान के अपने नाम से कीर्तन किये गए, 'वंदिय' मन-वचन-काय त्रिविध योग से अच्छी रीति से स्तुति किये गये, 'महिया' = पूजित । ऐसे कौन ? इसके उत्तर में कहते हैं 'जे ए' =जो ये, 'उत्तमा' = प्रधान अथवा 'उत्' पद प्राबल्य, ऊर्ध्व गमन, उच्छेदनादि अर्थ में प्रयुक्त होता है - इस वचन के अनुसार यहां उत् + तम अर्थात् अन्धकार से पर, अन्धकार का उच्छेदन करनेवाले - ऐसा भी अर्थ हो सकता है; यद्यपि इसमें संस्कृत 'तमस' शब्द आने से 'उत्तमसः' प्रयोग करना चाहिए तथापि प्राकृत शैली से व्यंजनान्त नाम नहीं होने के कारण 'तमस्' का अन्त्य 'स्' कार लुप्त हो जाता है, अतः शेष 'तम' शब्द लेकर 'उत्तमा' पद बनता है। 'सिद्धा' सित यानी बँधे हुए कर्म धमित किये, नष्ट किये हैं जिन्होंने वैसे; तात्पर्य, सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य हैं सर्व प्रयोजन जिनके सर्व कर्तव्य समाप्त हो गए हैं जिनके वे। 'आरुग्ग' = भाव रोग का अभाव यानी मोक्ष; इसके लिए 'बोहिलाभ' यह 'आरुग्गबोहिलाभ' कहलाता है । जिनेन्द्र देव से उपदिष्ट धर्म की प्राप्ति को बोधिलाभ कहते हैं; और वह बोधिलाभ पौद्गलिक आशंसा रूप निदान से रहित हो, केवल एक मोक्ष के उद्देश से हो, तभी प्रशंसनीय होता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि 'आरुग्गबोहिलाभं' = मोक्षं के लिए बोधिलाभ । ___ और भी आरोग्योपयोगी बोधिलाभ के लिए ही क्या चाहिए ? अतः कहते हैं 'समाहिवरं उत्तमं'। समाधि का अर्थ है समाधान वह द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार का होता हैं --- १. द्रव्य समाधि, २. भाव समाधि । उसमें, • द्रव्यसमाधि वह है, जिसके उपयोग से स्वस्थता होती है, अथवा विरोध का उपशमन होता है। (उदाहरणार्थ, औषध के उपयोग से स्वस्थता हुई, तब वह द्रव्यसमाधि कहलाएगी; एवं किसी समझौते से दो के बीज का विरोध निपट गया तब वह भी द्रव्यसमाधि कही जाएगी।) • भावसमाधि ज्ञानादि-समाधान रूप है, क्यों कि उसके उपयोग से पारमार्थिक आत्म-स्वास्थ्य होता है। (उदाहरणार्थ-कर्मवैचित्र्य, भवितव्यताप्राबल्य, शुद्ध आत्मस्वरूप आदि का चिन्तन करने से, हर्ष-शोकादि ३०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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