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(ल०-निदानलक्षणं धर्मकल्पतरुश्च ) अत्रोच्यते, -न निदानमेतत्, तल्लक्षणायोगात् । द्वेषाभिष्वङ्गमोहगर्भ हि तत्, तथा तन्त्रप्रसिद्धत्वात् ।
(पं०-) 'न निदाने 'त्यादि, न = नैव, निदानं नितरां दायते-लूयते सम्यग्दर्शनप्रपञ्चबहलमूलजालो ज्ञानादिविषयविशुद्धविनयविधिसमुद्धरस्कन्धबन्धो विहितावदातदानादिभेदप्रभेदशाखोपशाखाखचितो (प्र०....उपचितो) निरतिशयसुरनरभवप्रभवसुखसंपत्तिप्रसूनाकीर्णोऽनभ्यर्णीकु तनिखिलव्यसनव्याकुलशिवालयशर्मफलोल्बणो धर्मकल्पतरुरनेन सुरद्धर्याद्याशंसनपरिणामपरशुनेति निदानम् । 'एतद्' = आरोग्यबोधिलाभादिप्रार्थनम् । कुत इत्याह 'तल्लक्षणायोगात्' = निदानलक्षणाघटनात्। निदानलक्षणमेव भावयन्नाह 'द्वेषाभिष्वङ्गमोहग) हि तत्, द्वेषो = मत्सरः, अभिष्वङ्गो = विषयानुरागो, मोहः = अज्ञानं, ततस्ते द्वेषाभिष्वङ्गमोहाः, गर्भाः = अन्तरङ्गकारणं यस्य तत् तथा, हिः यस्मात्, तत् निदानम् । कुत इत्याह 'तथा' = द्वेषादिगर्भतया, 'तन्त्रप्रसिद्धत्वात्' = निदानस्यागमे रूढत्वात् । रागद्वेषगर्भयोनिदानयोः सम्भूत्यग्निशर्मादिषु प्रसिद्धत्वेन तल्लक्षणस्य सबोधत्वात निर्देशमनादत्य मोहगर्भनिदानलक्षणमाह; -
व्याकुलता - अस्वस्थता शान्त हो कर उदासीनभाव रूप सच्चा आत्म-स्वास्थ्य प्राप्त होता है, तब वह भावसमाधि कहलाएगा।)
समाधि यों द्विविध है इसलिए यहां द्रव्यसमाधि छोड कर के भावसमाधि के ग्रहणार्थ समाहिवरं' कह कर 'वरं' पद दिया । 'वर' अर्थात् प्रधान । द्रव्यसमाधि गौण समाधि है, प्रधान समाधि भावसमाधि को कहते हैं। वह भी अनेकविध तारतम्य से अर्थात् कोई कम, कोई अधिक, कोई अधिकतर, भावसमाधि, -इस प्रकार अनेकविध होती है; इसलिए यहाँ उसका प्रकार कहा गया कि 'उत्तमं' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट । 'दिंतु' का अर्थ है दीजिए।
_ 'कित्तिय-वंदिय' इत्यादि गाथा का समूचा अर्थ यह हुआ कि किर्तन-स्तुति-पूजन किए गए, हे लोकोत्तम सिद्ध भगवान ! मुझे मोक्षार्थ बोधिलाभ एवं सर्वोत्कृष्ट भावसमाधि दें।
प्रार्थना की अनुपपत्तिः -
प्र०- यह 'दें' कहते हैं, वह निदान (नियाणं) है क्या? या निदान नहीं है? अगर निदान है तब तो उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं, क्यों कि आगम में निदान करने का निषेध किया है। अगर कहें निदान नहीं है, तब यह बतलाइए कि वह 'दितु' कथन सार्थक है या निरर्थक? यदि आद्य पक्ष ले कर इसको सार्थक कहें, तब सार्थक कथन का मतलब यह है कि ऐसे प्रार्थना-वचन में तत्पर प्राणी की प्रार्थना सफल होती है अर्थात् लोकोत्तम सिद्ध भगवान प्रार्थना कराने पर, प्रार्थित वस्तु का दान करते हैं। फलत: यह प्राप्त होता है कि वे भगवान प्रार्थनाकारक के प्रति रागवान् हुए । एवं निन्दाकारक के प्रति द्वेषवान् भी होंगे ! ऐसा आपत्ति ठीक नहीं, अतः "दितु' कथन को सार्थक नहीं कह सकते हैं। अगर अन्तिम पक्ष ले कर उसको निरर्थक कहें, अर्थात् वह प्रार्थना निष्फल हो यानी सिद्धों की और से आरोग्यबोधिलाभादि कोई फल आने वाला नहीं, तो ये सिद्ध आरोग्यबोधिलाभादि के दान से रहित हैं, ऐसा जानता हुआ भी पुरुष इसकी प्रार्थना करता है इसमें असत्य भाषण के दोष की आपत्ति है।
निदान का लक्षण :
MINS ३०८
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