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________________ (ल०- गाथा-६:-) तथा, कित्तियवन्दियमहिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ व्याख्या-कीर्तिताः = स्वनामभिः प्रोक्ताः, वन्दिता = त्रिविधयोगेन सम्यक् स्तुताः, महिताः = पुष्पादिभिः पूजिताः क एते इत्यत आहय एते लोकस्य = प्राणिलोकस्य मिथ्यात्वादिकर्ममलकलङ्काभावेन, उत्तमाः = प्रधानाः, ऊद्धर्वं वा तमस इत्युत्तमसः, उत् प्राबल्योर्ध्वगमनोच्छेदनेषु' इति वचनात् प्राकृतशैल्या पुनरुत्तमा उच्यन्ते; 'सिद्धाः' इति, सितं = बद्धम्, ध्मातमेषामिति सिद्धाः कृतकृत्या इत्यर्थः; अरोगस्य भावः ‘आरोग्यं' = सिद्धत्वं, तदर्थं 'बोधिलाभ:' आरोग्यबोधिलाभः, जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिर्बोधिलाभोऽभिधीयते, तम् । स चानिदानो मौक्षायैव प्रशस्यत इति । • (१) इन तीर्थंकर भगवान के रागादि क्लेश नष्ट हो चुके हैं, इसलिए न तो वे प्रसन्न यानी प्रसाद स्वरूप राग से युक्त होते हैं, न उनकी स्तुति निष्फल होती है। पूछिए क्या फल है ? उत्तर यह है कि वीतराग की स्तुति में अध्यवसाय की विशुद्धि होने से कर्मनाश स्वरूप फल है। •(२) इन वीतराग के श्रेष्ठ गुणों का उत्कर्ष करना, यानी उत्कृष्टता गाना, इस स्वरूप जो स्तुति, उसके द्वारा भी वे अनुपम प्रभाव वाले होते हैं। (यह मत कहिए कि 'वीतराग का प्रभाव कैसे?') अचेतन शब्दात्मक मन्त्र या चिन्तामणि आदि के जप, उपासना द्वारा इष्ट सिद्धि होती दिखाई पड़ती है। (रागादि भावरहित अचेतन मन्त्रादि का भी अगर प्रभाव हो तब फिर सचेतन वीतराग प्रभु का प्रभाव होने में क्या आश्चर्य ?) • (३) स्तुति से जो प्रसन्न यानी रागयुक्त होता है, सहज है कि वह अपनी निन्दा होने पर, रोष पाता ही है। तब ऐसा सर्वत्र चित्त यानी चाहे स्तुति या निन्दा में विषम चित्त करने वाला मुख्य रूप से स्तोतव्य कैसे हो सके? ('मुख्य रूप से' का मतलब यह है कि वे सराग देवता वीतराग के भक्त होने के नाते स्तोतव्य हो सकते हैं।) •(४) अचेतन मन्त्रादि की क्या बात, अग्नि के संबन्ध में भी देखते हैं कि वह जाड़े से पीडितों के प्रति न तो द्वेष करता है, न राग, अथवा वह उन्हें बुलाता भी नहीं है, फिर भी उसको भजने वाले (सेवन करने वाले) पुरुष अपना इष्ट प्राप्त करता है। .(५) इस प्रकार जो लोग समस्त विश्व के भावों को पर प्रभाव वालेराग-द्वेषमुक्त तीर्थङ्कर भगवान का भक्तिपूर्वक आलम्बन करते हैं वे संसार स्वरूप जाड़े को हटा कर मोक्ष पाते हैं। तात्पर्य यह है कि अलबत्त वे तीर्थंकर प्रभु रागादि से रहित होने के कारण प्रसन्न नहीं होते हैं, फिर भी अचिन्त्य प्रभावशाली चिन्तामणि के समान उन भगवान को उद्देश्य कर के चित्त विशुद्धि पूर्वक स्तुति करने वालों को इष्ट फल की प्राप्ति होती है; यह इष्ट प्राप्ति वीतराग प्रभु से ही हुई कहलाएगी। गाथा का यह भाव है। फल के प्रति स्तुतिविषय का महत्त्व:प्र०-इष्ट प्राप्ति तो स्तुति से जन्य हुई, वीतराग से जन्य कैसे? वीतराग तो कुछ देते-करते नहीं। उ०-ठीक है, लेकिन इष्टप्राप्ति वीतराग की ही स्तुति करो तब होती है, औरों की नहीं। इससे सिद्ध होता है कि इष्टप्राप्ति वीतराग से जन्य है। स्तुति तो एक द्वारमात्र है, अन्वय व्यतिरेक मुख्य रूप से वीतराग और इष्टप्राप्ति के ही हैं । उदाहरणार्थ, मन्त्रादि की उपासना से होने वाला फल मुख्य रूप से मन्त्रादि से ही जन्य कहा जाता है, उपासना से नहीं । मन्त्रादि का ही ऐसा प्रभाव है कि उसकी उपासना क्रिया द्वारा वह इष्टोत्पादक होता है। इस ३०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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