SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-लोकोद्योतकरादिविशेषणसार्थक्यम्-) अत्राह,-'लोकस्योद्योतकरानित्येतावदेव साधु, धर्मतीर्थकरानिति न वाक्यं, गतार्थत्वात् । तथाहि, ये लोकस्योद्योतकराः, ते धर्मतीर्थकरा एवेति' । अत्रोच्यते, - इह लौकै कदेशेऽपि ग्रामैकदेशे ग्रामवल्लो कशब्दप्रवृत्तेः मा भूत्तदुद्योतकरेष्ववधिविभङ्गज्ञानिष्वर्कचन्द्रादिषु वा संप्रत्यय इत्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थं धर्मतीर्थकरानिति । आह, 'यद्येवं, धर्मतीर्थकरानित्येतावदेवास्तु, लोकस्योद्योतकरानिति न वाच्यमिति' । अत्रोच्यते, इह लोके येऽपि नद्यादिविषमस्थानेषु मुधिकया धर्मार्थमवतरणतीर्थकरणशीलास्तेऽपि धर्मतीर्थकरा एवोच्यन्ते, तन्मा भूदतिमुग्धबुद्धीनां तेषु संप्रत्यय इत्यतस्तदपनोदाय लोकस्योद्योतकरानप्याहेति । (ल०-इतरतीर्थकर्तरि जिनत्वाभाव:-) अपरस्त्वाह 'जिनानित्यतिरिच्यते; तथाहि, -यथोक्तप्रकारा जिना एव भवन्तीति ।' अत्रोच्यते, मा भूत्कुनयमतानुसारिपरिकल्पितेषु यथोक्तप्रकारेषु संप्रत्यय इत्यतस्तदपोहायाह 'जिनानि 'ति । श्रूयते च कुनयदर्शने, - 'ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥' इत्यादि । तन्नूनं न ते रागादिजेतार इति; अन्यथा कुतो निकारतः पुनरिह भवाङ्कुरप्रभवो, बीजाभावात् । तथा चान्यैरप्युक्तम्'अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनंकर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं मुञ्चति जन्माङ्कुरं जन्तोः' । तथा, 'दग्धे बिजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥' इत्यादि । 'कित्तइरसं चउवीसं पि केवली' की व्याख्या : 'कित्तइस्सं' अर्थात् मैं कीर्तन करुंगा, उन अरिहंतो की अपना अपना नाम लेकर स्तुति करूंगा। 'चउवीसं' अर्थात् चौबीस, यह अरिहंतो की संख्या है। 'पि' अर्थात् भी; यह शब्द भाव से तदितर के संग्रहार्थ है। 'भाव से' के दो अर्थ है, (१) नाम-अरिहंत, स्थापना-अरिहंत, और द्रव्य-अरिहंत को छोड कर भाव अरिहंत के निक्षेप से, अथवा (२) शुभ अध्यवसाय से । 'तदितर' का तात्पर्य है ऋषभदेवादि चौबिस तीर्थङ्करों के अतिरिक्त ऐवत महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न अरिहंत । उनके सङ्गहार्थ 'चौबीस भी' ऐसा कहा । कहा गया है कि 'अपि' शब्द के ग्रहण से ऐरवत और महाविदेह के अरिहंत भगवान लिये जाते हैं। वे केवली हैं अर्थात् केवलज्ञान जिन्हें विद्यमान है, वैसे हैं। उन केवलज्ञानी का भी मैं कीर्तन करूँगा। विशेषणों की सार्थकता का उपपादन 'धम्मतित्थयरे' क्यों दिया ? प्र०- 'लोगस्स उज्जोअगरे' अर्थात् 'लोक के उद्योत करने वालों को'- इतना ही कहिए, 'धम्मतित्थयरे' विशेषण क्यों जोडते हैं ? कारण, इसका भाव उसमें आ जाता है। जो लोक के उद्योतकर हैं वे धर्मतीर्थ करने वाले भी हैं ही। उ०-गांव के एक भाग में भी 'यह गांव है'-ऐसा व्यवहार होता है, इस प्रकार लोक के एक भाग में 'लोक' शब्द का प्रयोग हो सकता है, और वैसे लोक के एक भाग यानी अमुक द्रव्यादि के प्रकाशक अवधिज्ञानी विभंगज्ञानी (मलिन अवधिज्ञानी) एवं चन्द्र-सूर्य भी हैं, उनको यहां 'लोक-उद्योतकर' कर के न समझा जाए, इसलिए उसके निषेधार्थ धर्म-तीर्थङ्कर' विशेषण साथ में लगाया जाता है। अवधिज्ञानी आदि धर्मतीर्थ के प्रणेता नहीं है। म २९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy