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(ल०-विविधा जिना:- ) आह 'यद्येवं जिनानित्येतावदेवास्तु, लोकस्योद्योतकरानित्याद्यतिरिच्यते' इति । अत्रोच्यते, इह प्रवचने सामान्यतो विशिष्टश्रुतधरादयोऽपि जिना एवोच्यन्ते; तद्यथा,-श्रुतजिनाः अवधिजिनाः मनःपर्यायजिनाः, छद्मस्थवीतरागाश्च, तन्मा भूत् तेष्वेवंसम्प्रत्यय इति तद्व्युदासार्थं लोकस्योद्योतकरानित्याद्यप्यदुष्टमिति ।
(ल०-'अरिहंते' पदं किमर्थम्-) अपरस्त्वाह 'अर्हत' इति न वाच्यं, नानन्तरोदितस्वरूपा अर्हद्व्यतिरिकेणापरे भवन्तीति' । अत्रोच्यते, अर्हतामेव विशेष्यत्वान्न दोष इति । आह, - 'यद्येवं हन्त ! तहत इत्येतावदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि पुनरपार्थकम् ।' न, तस्य नामाद्यनेकभेदत्वात् भावार्हत्संग्रहार्थत्वादिति ।।
'लोगरस उज्जोअगरे' क्यों दिया ? --- प्र०-अगर ऐसा हो तो 'धम्मतित्थयरे' इतना ही पद हो, साथ में 'लोगस्स उज्जोअगरे' क्यों लगाते हैं ?
उ०- ठीक है, लेकिन लोक में नदी, सरोवर आदि में उतरने के लिए तीर्थ (घाट, आरा) बनाया जाता है; धर्महेतु मुफ्त में उसको बना देने वाले भी तीर्थंकर कहे जाते हैं, तो यहां अति मुग्ध बुद्धि वालों को 'धम्मतित्थयरे' कहने से वे न समझे जाएँ इसलिए उनके निषेधार्थ साथमें 'लोगस्स उज्जोअगरे' कहा गया।
'जिणे' क्यों दिया गया ? अवतारवाद का खण्डन :
प्र०-ठीक है, ये दोनों पद भले रहें, लेकिन साथ में 'जिणे' पद कहा गया वह अधिक है, अनावश्यक है। लोक के उद्योतकर एवं धर्म तीर्थङ्कर तो जिन ही होते हैं; तब उन दो पदों के कथन में 'जिन' का भाव समाविष्ट ही है, तो 'जिणे' पद की क्या आवश्यकता है ?
उ०- आवश्यकता यह है कि मिथ्यादर्शन के अनुयायी द्वारा कल्पित लोक-उद्योतकर एवं धर्म तीर्थकर यहां न लिये जाएं, अतः उनके निषेध के लिए 'जिणे' पद दिया गया है इससे वे यहां ग्राह्य नहीं होंगे। मिथ्यादर्शन में वे जिन याने वीतराग नहीं है यह इस प्रकार सुना जाता है कि -
'ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ।।' इत्यादि ।
__अर्थात् - 'ज्ञानी एवं धर्मतीर्थ के कर्ता मोक्ष में जा कर के धर्मतीर्थ का नाश देख कर वापस संसारमें अवतार लेते हैं।' किन्तु ऐसा अगर बनता हो, तो सचमुच वे जिन यानी रागद्वेष के विजेता नहीं है; अन्यथा तीर्थनाश देख कर वे बिना रागद्वेष वाले यहां वापस क्यों लौटते? बिना कर्म के वे संसार में जन्म कैसे ले सकते हैं ? क्यों कि जब मुक्त हुए, तब संसार का बीजभूत कर्म ही नहीं रहा । दूसरों ने भी कहा है कि - 'अज्ञानपांशुपिहितं पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं मुञ्चति जन्माकुरं जन्तोः ॥'
अर्थात् - पूर्वकालिन अविनाशी कर्मबीज तो अज्ञान स्वरूप धूल के नीचे ढका हुआ रहता है; और तृष्णा रूप जल से जब सींचा जाता है, तब वह जीव के जन्म स्वरूप अंकुर को प्रगट करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि परमात्मा को जन्म लेने के लिए पूर्वकालीन कर्मबीज है। तब तो वे सचमुच मुक्त ही नहीं । और भी कहा गया है कि,
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