________________
(ल०-' धम्मतित्थयरे जिणे अरिहंते' - ) तथा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्म्मः । उक्तं च, 'दुर्गतिप्रसृताञ्जीवान् यस्माद्धारते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १ ॥'
इत्यादि । तथा तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम् । धर्म्म एव धर्म्मप्रधानं वा तीर्थं धर्म्मतीर्थं, तत्करणशीला धर्म्मतीर्थकरास्तान् । तथा रागादिजेतारो जिनास्तान् । तथाऽशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तानर्हतः ।
( ल० - 'कीत्तइस्सं चउवीसं पि केवली' - ) 'कीर्त्तयिष्यामि' इति स्वनामभिः स्तोष्ये इत्यार्थः । 'चतुर्विंशतिमि ति संख्या । 'अपि शब्दो भावतस्तदन्यसमुच्चयार्थः । केवलज्ञानमेषां विद्यत इति केवलिनस्तान् केवलिनः ।
(पं०-) ‘भावतस्तदन्यसमुच्चयार्थ' इति, भावतः = नामस्थापनाद्रव्यार्हत्परिहारेण, शुभाध्यवसाय वा, ‘तदन्येषाम्' = ऋषभादिचतुर्विंशतिव्यतिरिक्तानाम् ऐखतमहाविदेहजानामर्हतां, ( समुच्चयार्थः= ) सङ्ग्रहार्थः । तदुक्तम् अविसद्दग्गहणा पुण एरवयमहाविदेहे य ।
इसकी व्याख्या:- यहां लोक के 'उद्योतकर' कहा, इसमें उद्योत्य लोक है और उद्योतक भगवान का केवलज्ञान है; इन दोनों को एक रूप नहीं, किन्तु भिन्न कर के उपन्यास किया; यह विज्ञान का अद्वैत अर्थात् जगत् में कोई घट आदि पदार्थ नहीं किन्तु एकमात्र विज्ञान ही सत्पदार्थ है, इस मत का निषेध करने के लिए कीया, एवं उद्योतक की भिन्नता सूचित करने के लिए किया। सारांश सत्य वस्तु स्थिति यह है कि उद्योतक विज्ञान के अलावा उद्योत्य लोक भी अलग सत्पदार्थ है। अब, 'लोक' शब्द जनसमाज या लोकाकाश अर्थ में रूढ हैं, किन्तु यह अर्थ लेने से प्रश्न होगा कि 'ऐसे लोक का प्रकाशक है तो क्या अन्य जड द्रव्यों अथवा अलोक का प्रकाशक नहीं है ?' उत्तर में है ही', इसलिए 'लोक' शब्द का यौगिक अर्थ (व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ) यहां लिया जाता है। जिसका लोकन - अवलोकन होता है, तात्पर्य प्रमाण ज्ञान से जिसका दर्शन होता है, वह 'लोक'। यहां यह 'लोक' कर के पंचास्तिकायात्मक लोक ग्राह्य है। इसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय स्वरूप सकल विश्व यानी समस्त पर्याययुक्त द्रव्य आ जाते हैं। भगवान इस लोक के उद्योतकर हैं, यानी उद्योतकरण के स्वभाव वाले हैं । केवलज्ञान से अपने को, अथवा केवलज्ञानपूर्वक वचनदीप से अन्यों को, समस्त पंचास्तिकाय लोक के प्रकाश करने के स्वभाव वाले हैं। उनका मैं कीर्तन करूंगा ।
'धम्मतित्थयरे जिणं अरिहंते' की व्याख्या :
धर्म क्या है ? 'धर्म' दुर्गति में गिरते हुए जीव को धारण कर लेना वाला, बचा लेने वाला है। कहा गया है कि 'जिस कारण से दुर्गति के प्रति प्रयाण करने वाले जीवों को बचा लेता है, रोक देता है, इसीलिए वह 'धर्म' है; और जिससे जीवों को शुभ स्थान में स्थापित करता है, इसलिए वह 'धर्म' नाम से ख्यात है,.. इत्यादि । • तथा 'तीर्थ' वह है जिससे तैरा जा सके। धर्म यही तीर्थ अथवा धर्मप्रधान तीर्थ यह धर्मतीर्थ है। संसार समुद्र से वह तारने वाला है। धर्मतीर्थ को करने के स्वभाव वाले जो हैं वे धर्म तीर्थंकर कहे जाते हैं।
'जिन' शब्द का अर्थ है, राग-द्वेषादि को जीतने वाले ।
के
'अरिहंत' शब्द का अर्थ है जो अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि इत्यादि आठ महाप्रातिहार्य स्वरूप पूजा अर्ह हैं, योग्य हैं।
Jain Education International
२९६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org