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(पं०) इत्थं कृत्स्नव्याख्यापक्षाशक्तावितरपक्षाश्रयणमपि सफलता वक्तुकामः श्लोकद्वयमाह - (ल०) यावत्तथापि विज्ञातमर्थजातं मया गुरोः । सकाशादल्पमतिना, तावदेव ब्रवीम्यहम् ॥ ३ ॥ ये सत्वाः कर्म्मवशतो मत्तोऽपि जडबुद्धयः । तेषां हिताय गदतः सफलो मे परिश्रमः ॥ ४ ॥
( पं० ) यावत् = यत्परिमाणं, तथापि = कृत्स्नव्याख्याऽशक्तिलक्षणो यः प्रकारस्तस्मिन् सत्यपि, विज्ञातं = अवबुद्धम्, अर्थजातम् = अभिधेयप्रकारस्तत्समूहो वा, प्रकमाच्चैत्यवन्दनसूत्रस्य, मया = इत्यात्मनो निर्देशे, गुरोः = व्याख्यातुः, सकाशात् = संनिधिमाश्रित्य, कीदृशेनेत्याह अल्पमतिना, अल्पा = तुच्छा गुरुमत्यपेक्षया मतिः = बुद्धिर्यस्य स तथा तेन, तावदेव = विज्ञातप्रमाणमेव, अविज्ञातस्य वक्तुमशक्यत्वात्, ब्रवीमि = वच्मि अहं कर्त्तेति । अल्पमतिनेत्यनेन चेदमाह, कदाचिदधिकधीर्गुरोः श्रुण्वंस्ततोऽधिकमपीदमवैति । 'ध्यामलादपि दीपात्तु निर्मलः स्यात्स्वहेतुतः ' - इत्युदाहरणात् । तत्समधीश्च तत्समं, अहं त्वल्पमतित्वाद् गुरुनिरूपितादपि हीनमेवार्थजातं विज्ञातवानिति तदेव ब्रवीमि ॥ ३ ॥
ये = इति अनिरुपितनामजात्यादिभेदाः, सत्त्वाः = प्राणिनः, कर्मवशतो = ज्ञानावरणाद्यदृष्टपारतन्त्र्यात्, मत्तोऽपि = मत्सकाशादपि, नान्यः प्रायो मत्तो जडबुद्धिरस्तीतिसम्भावनार्थः 'अपि' शब्दः, जडबुद्धयः = स्थूलबुद्धयो, विचित्रफलं हि कर्म, ततः किं न सम्भवतीति तेषां = जडबुद्धीनां हिताय = पथ्याय, गदतो = विवृण्वत:, सफलो = बोधलक्षणतदुपकारवान् अधिकसदृशबुद्धिकयोस्तु प्रमोद - माध्यस्थ्यगोचरतयातोऽनुपकारात् - मे = मम, परिश्रमः = व्याख्यानरूपः ।
प्रस्तुत में चैत्यवंदन सूत्र की पूर्ण रूप से व्याख्या कौन कर सकता है ? इसमें 'कौन' शब्द अपलाप अर्थ में ले कर ऐसे व्याख्याता होने का अपलाप किया यानी निषेध किया ।
पंजिकाकार महर्षि फरमाते है कि चौदह पूर्वो के पारगामी को त्याग कर ऐसा कोई नहीं है कि जो सूत्र की संपूर्णतया व्याख्या करने में समर्थ हो, ऐसा श्लोक का अभिप्राय है। ऐसा कहा भी है कि श्रुतकेवली के सिवाय अन्य कोई विद्वान संपूर्ण विस्तार से कभी भी व्याख्या नहीं कर सकता । चैत्यवंदन सूत्र भी जिन-प्रवचन सूत्र में अन्तर्गत है, अत: उसका पूर्ण रूप से विवेचन असंभव है ।
इस प्रकार संपूर्ण व्याख्या पक्ष का अवलंबन करने की जब शक्ति नहीं तब दूसरे पक्ष का अर्थात् आंशिक व्याख्या पक्ष का अवलंबन करना भी सफल है, ऐसा कहने की इच्छा से ग्रन्थकार महर्षि दो श्लोक कहते हैं ‘यावत्तथापि....' 'ये सत्त्वा...' (ल०) अर्थ यह है कि यद्यपि मुझ अल्पबुद्धि ने जितना अर्थसमूह गुरुदेव के पास से जाना है उतना ही मैं यहां पर कहता हूँ। (फिर भी) जो जीव कर्मवश मुझ से भी मन्द बुद्धि वाले हैं उनके हित के लिये उतना भी कहने में मेरा परिश्रम सफल है। संपूर्ण व्याख्या करने की असामर्थ्य का प्रकार रहने पर भी जितने प्रमाण में चैत्यवंदन सूत्र के वक्तव्य पदार्थ समूह व्याख्याता गुरुदेव से मेरे जैसे अल्पबुद्धि ने उन के सान्निध्य को पाकर जाना है, उतने ही प्रमाण में मैं यहाँ उल्लेख कर रहा हूं। नहीं जाना हुआ अर्थ कहाँ से कहा जाए ? ग्रन्थकार स्वयं अपने को अल्पबुद्धि कह कर, यह सूचित करते हैं कि यदि गुरु के सान्निध्य में गुरु से भी कुशाग्र बुद्धिवाला सुने तो वह उन से भी अधिक पदार्थ समूह जान सकता है। जैसे कि, मन्द दीपक की तुलना में नवीन दीपक, जो स्वयं मन्द दीपक से प्रज्वलित हुआ है फिर भी अति तेजस्वी हो सकता है। अब गुरु के समकक्ष बुद्धिमान् शिष्य गुरु से कहे बराबर पदार्थ समूह जान सकता है। परंतु मैं तो व्याख्याता गुरु से मन्द बुद्धिवाला होने से गुरु ने बतलाया उतना भी नहीं किन्तु उससे भी कम पदार्थ-समूह समझा हूँ, इसलिये मैं उतना ही कहता हूँ ।
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