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________________ - (पं०) अयं हि 'किं' शब्दो (१) अस्ति क्षेपे – 'स किं सखा योऽभिद्रुह्यति ?' (२) अस्ति प्रश्ने - 'किं ते प्रियं करोमि ?' (३) अस्ति निवारणे • किं ते रुदितेन ?' (४) अस्त्यपलापे -' किं ते धारयामि ?' (५) अस्त्यनुनये -- किं ते अहं करोमि ?' (६) अस्त्यवज्ञाने - 'कस्त्वामुल्लापयते ?' । इह त्वपलापे, नास्त्यसौ य: सूत्रस्य कार्त्स्न्येन व्याख्यां कर्तुं समर्थः इत्यभिप्रायोऽन्यत्र चतुर्दशपूर्वधरेभ्यः । यथोक्तं - 'शक्नोति कर्तुं श्रुतकेवलिभ्यो, न व्यासतोऽन्यो हि कदाचनापि' इति । जिनागमसूत्रान्तर्गतं च चैत्यवन्दनसूत्रमतोऽशक्यं कृत्स्नव्याख्यानमिति ॥ २ ॥ उत्तर- जिस प्रकार मृण्मयता का विधान घड़े में होता है उसी प्रकार सूत्रमयता का निषेध भी घड़े में ही होता है । या यों कहिये कि मृण्मय कौन ? तो घड़ा। उसी प्रकार सूत्रमय कौन नहीं है ? तो भी उत्तर यही कि घड़ा। इस प्रकार घडे में दो अवस्थाएँ हुई। प्रथम विधान अवस्था और द्वितिय निषेध-अवस्था। कौन कह सकता है कि घड़े में विधान अवस्था अर्थात् विधेय भले ही हों, परन्तु निषेध अवस्था (निषेध्य) हो ही नहीं सकती ? यदि सूत्रमयता घड़े की निषेध-अवस्था न होती तो घडा सूत्रमय ही बन जाता। तात्पर्य यह है कि मृण्मय और सूत्रमय दोनों ही घडे की अवस्था हैं । अन्तर इतना ही है कि एक विधान-संबन्ध से संबद्ध है, अपर निषेध-सम्बन्ध से संबद्ध । एक है विधेय रूप में, और दुसरी है निषेध रूप में। दूसरे शब्द से कहें तो एक अवस्था अनुवृत्ति रूप है और दूसरी व्यावृत्ति रूप । परन्तु दोनों ही घडे के पर्याय है इसमें कोई संशय नहीं । इस द्रव्यपर्याय की तरह क्षेत्र - काल- भावादि की अपेक्षा से घडे की अनन्त अवस्थाएँ हैं अर्थात् अनन्त पर्याय हैं। अब चैत्यवन्दनादि सूत्र में देखें तो सूत्र यह शब्द - पुद्गल होने से इन में भी ऊंचे या नीचे स्वर से उच्चारित उदात्त या अनुदात्त, वैसे ह्रस्व या दीर्घ, इत्यादि अनुवृत्ति और व्यावृत्ति नामक अनन्त पर्याय हैं। ऐसे ही अर्हत् प्रभु के प्रवचन में अंग-उपांग, कालिक - उत्कालिक वगैरह सूत्र समूह के अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं। ये सभी गम-पर्याय सूत्र के विवेचन में लिये जायँ तो सूत्र का विवेचन संपूर्ण रूप से हुआ वैसा कहा । किन्तु वैसे करने के लिए कौन समर्थ होगा ? अर्थात् कोई समर्थ नहीं है । यहां 'कौन समर्थ है' इस वाक्य प्रयोग में 'कौन' शब्द आया । उसके भिन्न-भिन्न अर्थो का थोडा विचार बतलाते हैं, 'अयं हि 'किं' शब्दो..... 'कौन' व 'क्या' यह शब्द १. आक्षेप - २ प्रश्न- ३. निवारण ( रोकना) ४. अपलाप (निषेध) - ५. अनुनय प्रार्थना और ६. अवज्ञा, - ऐसे छ: अर्थो में प्रयुक्त होता है । दृष्टांत से (१) 'आक्षेप' :- जो विश्वासघात करता है वह मित्र कौन ? यहां मित्रता पर आक्षेप किया गया। (२) 'प्रश्न' :- मैं तुम्हारा क्या हित कर सकता हूँ? अर्थात् प्रश्न रूप में हित जानने की इच्छा व्यक्त की । (३) 'निवारण' :- अब तुम्हारे रोने से क्या ? अर्थात् 'रोना बन्द करो' । रोने का निवारण किया। (४) 'अपलाप' :- मेरे पर तुम्हारा क्या ऋण है ? अर्थात् कुछ देना नहीं है ऐसा निषेध किया । (५) 'प्रार्थना' :- मैं तुम्हारा क्या करूं ? अर्थात् तुम्हें क्या चाहिये ? वह कहने के लिये प्रार्थना की गई । (६) 'अवज्ञा' :- तुम्हें कौन बुलाता है ? अर्थात् तुम्हें कोई पूछता नहीं फिर भी बीच में क्यों बोलते हो, ऐसा भाव प्रदर्शित कर, उसका तिरस्कार किया गया। Jain Education International ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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