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________________ (पं०-) अनन्ताः = अनन्तनामकसंख्याविशेषानुगताः, गमाः =अर्थमाग्र्गाः, पर्यायाश्च = (अवस्थाविशेषाः) उदात्तादयोऽनुवृत्तिरुपाः पररूपाभवनस्वभावाश्च व्यावृत्तिरूपा, यत्र तत्तथा (अनन्तगमपर्यायं), सर्वमेव =अंगगतादि निरवशेषं, जिनागमे =अर्हच्छासने, सूत्रं =शब्दसन्दर्भरूपं यतो =यस्माद्धेतोः । 'तत':, इति गम्यते (अध्याहारेण), अस्य = सूत्रस्य कात्स्न्र्येन = सामस्त्येन व्याख्यां = विवरणं, कः कर्तुं =विधातुम, ईश्वरः समर्थः ? प्रभु को 'जिनोत्तम' इसलिये कहा जाता है कि 'जिन' शब्द का अर्थ है, राग, द्वेष और मोह रूपी आंतरशत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले (उन्हें दूर हटाने वाले) ऐसे हैं अवधिज्ञानी जिन, मन:पर्याय जिन, श्रुतकेवली जिन, वीतराग केवली जिन (सर्वज्ञ) । इन सभी जिन भगवंतो में सर्वज्ञ वीतराग जिन ने तो रागद्वेषका निर्मूल नाश किया है। उनमें भी मुख्य है सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर जिन । क्यों कि वे समस्त रागद्वेष के विनाशक होते हुए विश्वमें धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होते हैं इससे विश्व की आत्माएँ जिन बन सकती हैं। आचार्य महाराज जिस व्याख्यासंबन्धी प्रतिज्ञा कर चुके उस व्याख्या के दो भेद हैं (१) संपूर्ण व्याख्या, और (२) आंशिक व्याख्या। इसमें से संपूर्ण व्याख्या का प्रकार अवलम्बित करने की सामर्थ्य खुदमें नहीं है, इसी को प्रकट करते हुए दूसरा श्लोक कहते हैं 'अनन्तगम......' । (ल०) श्री अरिहंत प्रभु के शासनमें सभी सूत्र अनंत गम एवं अनंत पर्याय से युक्त हैं। इसलिये इस चैत्ववंदन सूत्र का पूर्ण रूप से विवरण करने में कौन समर्थ है ? (पं०) संख्या संख्यात, असंख्यात और अनंत- ऐसी तीन प्रकार की होती है। इन में से अनंत नामक विशिष्ट संख्या से युक्त है सूत्र के गम व पर्याय । 'गम' कहते हैं अर्थ के मार्ग को, अर्थात् सूत्र में रही हुई अर्थबोधन-शक्तियोंको, जो उस उस अर्थ की अभिव्यक्ति करने में उपायभूत हैं। जैसे भग शब्द के सूर्य, सौभाग्य, ऐश्वर्य आदि कई अर्थ कोष में निर्दिष्ट हैं। भग शब्द में उस-उस अर्थ प्रकाशन करने की शक्ति होती है। तदुपरांत वाक्य में निविष्ट भग शब्द से, आगे पीछे शब्दों के संदर्भवशात्, कितने ही लाक्षणिक अर्थ भी ज्ञात होते हैं। तब उन अर्थो को भी प्रकाशित करने का सामर्थ्य भग शब्द में सिद्ध है। ऐसे अनंत अर्थबोधन शक्ति स्वरूप अर्थमार्ग अर्थात् 'गम' प्रत्येक सूत्र में रहे हैं। एवं सत्पदादि, गतिइन्द्रियादि, उद्देश-स्वामित्वादि मार्गणाद्वारों से अनंत गम बनते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक सूत्र के पर्याय भी अनन्त हैं । पर्याय का अर्थ है अवस्था । उनको दो विभागों में विभाजित कर सकते हैं : - (१) अनुवृत्ति पर्याय और (२) व्यावृत्ति पर्याय । अनुवृत्ति पर्याय वे है जो वस्तु के स्वरूप में तद्रूप रहे हुए हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी के घडे में मृण्मयता (मिट्टीपन) स्वरूप के साथ तद्प रही है। हीरे में प्रकाशस्व स्वरूप में तद्रूप है। वे अनुवृत्ति पर्याय कहलाता है। दूसरा है व्यावृत्ति पर्याय, वह पररूप के अभवन अर्थात् निषेध स्वभाववाला है। उदाहरण से, घडा सूसमय नहीं है । सूरपयता तो वस्त्र का अनुवृत्ति स्वरूप है, ठीक उस सूत्रमयता की अननुवृत्ति घडे ही में है। ऐसी निषेध रूप से संबद्ध सूत्रमयता घडे का व्यावृत्ति पर्याय कहलाता है। परपर्याय स्वीय कैसे? प्रश्न - मृण्मयता घडे में है, तो उसे घडे का पर्याय ठीक ही माना जाय, परन्तु सूत्रमयता जो कि घड़े में है ही नहीं उसे घड़े का पर्याय कैसे कह सकते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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