________________
(पं०) तत्राचार्यः शिष्टसमाचारतया विघ्नोपशमकतया च मंगलं, प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यर्थमभिधेयं सप्रसङ्गं प्रयोजनं सामर्थ्यगम्यं सम्बन्धं च वक्तुकाम आह 'प्रणम्य भुवनालोकं....।'
तत्र 'प्रणम्य' = प्रकर्षेण नत्वा भुवनालोकं ' 'भुवनं' = जगत्, 'आ' इति विशेषसामान्यरूपविषयभेदसामस्त्येन, 'लोकते' केवलज्ञानदर्शनाभ्यां बुध्यते यः स तथा तं, कमेवंविधमित्याह 'महावीरं' अपश्चिमतीर्थपति जिनोत्तमं = अवध्यादिजिनप्रधानं, 'चैत्यवंदनसूत्रस्य' प्रतीतस्य, 'व्याख्या' = विवरणं, 'इयं' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणा, 'अभिधीयते' = प्रोच्यते इति ॥ १ ॥ सम्प्रत्याचार्यः प्रतिज्ञातव्याख्याकृत्स्नपक्षाक्षमत्वमात्मन्याविष्कुर्वनाह, -
(ल०-) अनन्तगमपर्ययं सर्वमेव जिनागमे । सूत्रमतोऽस्य कार्येन व्याख्यां कः कर्तुमीश्वरः ॥२॥
इस पवित्र ग्रन्थ का विवरण लिखने के लिए पञ्जिकाकार द्वारा प्रतिपादित तीन साधन सुयोग्य और अति आवश्यक हैं। जैसे कि (१) इस ग्रन्थमें दूसरे शास्त्रों के कहे हुए कितने ही पदार्थों का प्रतिपादन है अतः इस की व्याख्या के लिये अन्य दूसरे शास्त्रों का अवलोकन आवश्यक है। (२) ललित विस्तरामें रहस्य भी ऐसे गूढ हैं कि उन्हें स्पष्ट करने के लिए तर्कशक्ति के साथ ही सच्ची समन्वय शक्ति भी होनी चाहिये जिसे सम्यग् 'ऊहा' कहा जाता है। ललित विस्तरा जैसे महान ग्रन्थ का भाव सिर्फ तर्क के आधार पर विपरीत ज्ञात होना संभव है। इस के निवारणार्थ (३) पूर्व पुरुषों का संप्रदाय अर्थात् पठन परिपाटी के संदर्भ में शब्दार्थ, भावार्थ और दूरवर्ती तात्पर्यतक का बोध होना ही उतना ही आवश्यक है। उपरोक्त साधनों से सुसज्ज पंजिकाकार महात्मा अपने कार्य का शुभारंभ करते हैं।
(पं०:-) वहाँ ललितविस्तरा ग्रन्थ के रचयिता आचार्य महाराज, (१) शिष्ट पुरुषों के आचार स्वरूप एवं विघ्न के शांतिकारक होने से मंगल करने की कामनावश, (२) प्रेक्षावान अर्थात् विचार कर कार्यप्रारंभ करनेवाले बुद्धिशालि पुरुषों को इस शास्त्र के पठनमें प्रवृत्ति हेतु शास्त्र के विषय को कहने के लिये, एवं (३-४) प्रसङ्गसे प्रयोजन और सम्बन्ध को ज्ञात कराने के लिये यह श्लोक कहते हैं - 'प्रणम्य भुवनालोकं...' इसका अर्थ है :
समस्त सामान्य और विशेष रूपसे विश्वके ज्ञाता जिनेश्वर श्री महावीरप्रभु को प्रबल प्रणाम कर, चैत्यवन्दन सूत्र की व्याख्या की जाती है।
(प्र.:-) विश्व की प्रत्येक वस्तु में विशेष और सामान्य ऐसे दो स्वरूप होते हैं। उदाहरणार्थ, आकाश विशेषतया अवकाशदायी स्वतंत्र 'आकाश' नाम का द्रव्य है; और सामान्यतया जीव आदि और द्रव्य की तरह 'द्रव्य' भी है। घडा विशेषतया लाल मिट्टी का और बडा घडा है, साथ ही सामान्य रूप से अन्य घडे की तरह पानी भरने का एक पात्र है। अथवा कहिये, यही घडा सामान्यतया अन्य रक्त घडे की तरह रक्त व मोटा है। परंतु विशेषतया नया और कीमती भी है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तुमें भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से कई विशेष और सामान्य ऐसे दो प्रकार के स्वरूप होने का ज्ञान होता है। ऐसे समस्त त्रिकालवर्ती विशेष और सामान्य स्वरूपसे विश्व को केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के द्वारा जो जानते हैं और प्रत्यक्ष देखते हैं, ऐसे इन अवसर्पिणी के चरम जिनपति भगवान श्री महावीर देव को आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज इच्छायोग के प्रकर्ष से नमस्कार कर सुप्रसिद्ध ऐसे चैत्यवंदन सूत्रपर अभी कही जाने वाली व्याख्या करते हैं। इच्छायोग - शास्त्रयोगादिका वर्णन योगद्रष्टिग्रन्थ में है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org