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का विवरण कौन कर सकता है ? तथापि अपनी स्मृति हेतु, '१ शास्त्रान्तरदर्शनतः.....' अर्थात् अन्य दूसरे शास्त्रों का अवलोकन कर, २ अपने तर्कपूर्ण विचारों के आधार पर, और ३ गुरु के उपदेशानुसार, इस पंजिका का शुभारंभ किया जाता है। जिसमें कि कतिपय दुर्बोध पदों के अर्थ का स्पष्टीकरण है।
(प्र०-) इसी के संदर्भ में विवेचक ने यह सूचित किया है कि ललित विस्तरा एक महान् गंभीर, और सूक्ष्म भावों से ओतप्रोत ग्रंथ है। श्री सिद्धर्षिगणि महाराज बौद्ध शास्त्र के अभ्यास से विचलित चित्तवाले बने । फिर उन के विरुद्ध जैन दर्शन की युक्तियों का प्रकाश मिलने से बौद्ध की युक्तियों को मिथ्या मानते, परंतु पुन: बौद्ध युक्तियाँ इन्हीं भागों में मिलने से बौद्ध धर्म के पक्षपाती बनते । ऐसी चल-विचलता का अर्थ यह होता है कि मिथ्या दर्शन के भ्रामक युक्तियों में आकर्षित न हो इसके लिये जैन दर्शन की मात्र सच्ची युक्तियाँ ही सब कुछ नहीं थीं, परंतु जैन दर्शन की ऐसी सर्वांगीण विशेषताओं और सच्चे तत्त्वों के हृदयभेदी प्रकाशकी भी आवश्यकता थी जिस से चित्त ऐसा सुस्थिर हो जाए कि अन्य दर्शन द्वारा पेश की हुई चाहें जैसी युक्तियाँ हो, उनकी असत्यता
और अश्रद्धेयता हृदय में सुव्यक्त बनी रहे; और उन का प्रतिकार करने में सामर्थ्यवान होने से, अपने को प्राप्त हुआ सम्यग् बोध और सत् तर्क के आधार से मिथ्या मत का जोरदार खंडन ज्ञात हो जाए । अथवा क्षयोपशम की मंदताके आधार से उतना तीक्ष्ण बोध न होने पर भी उसे कुतर्क समझकर उसपर लेशमात्र भी श्रद्धा या आकर्षण नहीं हो। ऐसे जैन दर्शन के विशिष्ट तत्त्वोंका प्रकाश अद्भुत कोटिके 'ललित विस्तरा' ग्रंथ से जब उन्हें प्राप्त हो गया, तब उन्हें अपनी चंचलता और मिथ्यात्ववशता पर घोर पश्चात्ताप हुआ; उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि 'ऐसे मिष्टान्न स्वरूप जैन दर्शन को त्याग कर मेरे जैसे मूर्खने यह कहां कदन्नतुल्य अन्य दर्शन को स्वीकार किया ! अहो ! कैसा सर्वोत्तम जैनदर्शन ! कैसे उसके उच्च एवं समस्त विश्वमें अप्राप्य विशिष्ट तत्त्व!' इस तरह मिथ्या मतके प्रति घणा एवं जैन दर्शन के प्रति महान आदर हो जाने से सम्यग दर्शन में सद्रढ हो गये। जिनोक्त तत्त्वके प्रति अचल तथा असीम श्रद्धावान हुए । इतना ही नहीं, पर इस ग्रंथ में अन्यान्य दर्शनोंके विविध कुमतों का दर्शनदिवाकर प्रकाण्ड विद्वान श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज द्वारा किया गया तर्कपूर्ण खंडन और साथ ही जैन तत्त्व का मंडन,- उस का अपूर्व बोध होने से कुमतप्रहार के सामने लोह-दिवार जैसे बन गये।
सहज ही यह भाव उत्पन्न होगा कि ऐसा इस ललित विस्तरा ग्रंथ में क्या है! लेकिन इस आश्चर्य के प्रति कहना पडेगा कि एक शकस्तव नमोत्थुणं सूत्र का भी प्रत्येक पद कुमतों के निराकरण से गर्भित है, साथ ही उन में अनेक विशिष्ट पदार्थो का गर्भित प्रतिपादन है। उन की श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज द्वारा प्रगट की गई दिव्य ज्योति का अनुभव करनेवाले पुरुष ही इस ग्रंथ की विशेषता समझ सकते हैं।
यद्यपि सिद्धर्षि गणि महाराज ललित विस्तराकार महर्षि के बाद शताब्दियों के अन्तर पर हुए है; फिर भी ललित विस्तरा से अपने पर हुए अप्रतिम भावोपकार की कृतज्ञतावश ललित विस्तराकार श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज को अपने गुरु करके अपने विश्व श्रेष्ठ 'उपमिति ग्रंथ' में नमस्कार करते हैं। यह सच है कि जब आत्मा मिथ्यात्व के अंधकार में फँसकर साधु के छठे गुणस्थानकसे, श्रावक के पांचवेंसे, और जैन के चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान से भ्रष्ट होती है; अगर वहाँ उसे कोई पुनः निर्मल सम्यग्दर्शन के प्रति सुस्थिर कर दे, जिससे पुनः छठा चारित्र गुणस्थानक पर आरुढ हो, तो ऐसा अनुभव होगा कि इस उपकारका बदला देना प्रायः असंभव है। श्री सिद्धर्षि गणि महाराज ने तो यहाँ तक कहा है कि यह ललित विस्तरा ग्रंथ मानो मेरे लिए ही लिखा गया है।
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