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(पं०) यां बुध्वा किल सिद्धसाधुरखिलव्याख्यातृ चूडामणिः, संबुद्धः सुगतप्रणीतसमयाभ्यासाच्चलच्चेतनः । यत्कर्तुः स्वकृतौ पुनर्गुरुतया चक्रे नमस्यामसौ, को ह्येनां विवृणोतु नाम ? विवृत्ति स्मृत्यै तथाप्यात्मनः ॥२॥ शास्त्रान्तरदर्शनतः, स्वयमप्यूहाद् गुरूपदेशाच्च । क्रियते मयैष दुर्गमकतिपयपदभञ्जिकारम्भः ॥३।। (युग्मम्)
ऐसे अद्भुत चैत्यवंदन के अनुष्ठान में "श्री शक्रस्तव" (नमुत्थुणं) आदि सूत्र अतीव उपयोगी है। इससे सफल ऐसे भाव अनुष्ठान की निश्चित सिद्धि होती है। अतः चैत्यवंदन सूत्रों के शब्दार्थ, भावार्थ और ऐदंपर्यार्थको जानना अत्यंत ही आवश्यक है। और वे तीनों बडे गंभीर हैं। चौदहसौ चवालीस शास्त्रोंके प्रणेता, पूर्वधर के अति निकट कालवर्ती, जैनदर्शन की अनेक असाधारण विशेषताओं के सप्रमाण प्रकाशक, महासंवेग-वैराग्य रस के पातालकलशसम, सत्तर्कपूर्वक षड्दर्शन के समर्थ समीक्षक, इत्यादि अनेकानेक प्रभावकगुणगणोंसे अलंकृत आचार्य भगवंत श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजने चैत्यवंदन सूत्र के रहस्यमय अर्थ को सविस्तार समझाने के लिये एक व्याख्या की रचना की है, जिसका नाम है "ललित विस्तरा"।
यह "ललित विस्तरा" एक व्याख्या ग्रंथ है। फिर भी हरिभद्रसूरिजी महाराज की व्याख्या ग्रंथ की लेखनी (भाषा) के लिये ऐसी प्रसिद्धि है कि जैसे वह सूत्र भाषा है। क्योंकि उन के व्याख्या-शब्द गंभीर और विस्तृत भावों से ओतप्रोत होते हैं। इसलिये समर्थ विवेचनकार, प्रखर दार्शनिक, और स्व पर आगम के विशिष्ट ज्ञाता आचार्यपुंगव श्री मुनिचंद्रसूरिजी महाराज ने इसी "ललित विस्तरा" पर एक संक्षिप्त व्याख्या 'पंजिका' नाम से लिखी है।
___ "पंजिका पदभंजिका" इस कोषवचन से यह पंजिका नाम की व्याख्या 'ललित विस्तरा' के कतिपय पदों का संक्षिप्त विवेचन करनेवाली है। इस पंजिका का शुभारंभ करते समय मंगल-सूचक और अभिधेय-दर्शक श्लोक की इस प्रकार रचना करते हैं :- 'नत्वानुयोगवृद्धेभ्यः..... । इसका भाव है,
(पं. अर्थ:-) अनुयोग वृद्धोंको नमस्कार कर, चैत्यवंदनसूत्र संबंधी 'ललित विस्तरा' नाम की विवेचना का मैं कहीं-कहीं अल्प ही व्याख्यान (भाव-स्पष्टीकरण) करता हूँ।
(प्र.:-) अनुयोग के चार प्रकार है - (१) चरणकरणानुयोग, (२) गणितानुयोग, (३) धर्मकथानुयोग, और (४) द्रव्यानुयोग । सामान्यतः अनुयोगका अर्थ व्याख्या होता है । अनु = सूत्र के पीछे, योग = अर्थ का संबन्ध । अर्थात् सूत्रका अर्थ जिससे ज्ञात होता हो, ऐसी व्याख्या अनुयोग है। उसमें पदार्थको सुस्पष्ट करनेवाले पूर्वपुरुष अनुयोगवृद्ध कहलाते हैं । अर्थात् प्रथमतः तत्त्वको अर्थसे कहनेवाले जिनेन्द्र श्री तीर्थंकर देव है; और जिनोक्त तत्त्वोंको सूत्र में प्रतिबद्ध करनेवाले श्रीगणधर भगवंत हैं । वे ही अपने शिष्योंको सूत्रार्थ पढाते हैं, सूत्र व्याख्यान देते हैं। उनको और अन्य व्याख्याकारक पूर्वाचार्यों को यहांपर नमस्कार किया गया है।
(पं.:-) ललित विस्तरा ग्रन्थका विवरण करनेमें कौन समर्थ है, -यह स्पष्ट करते हुए कहते है कि "यां बुध्दवा...." अर्थात् निखिल व्याख्याताओंमें मुकुटमणि समान श्री सिद्धर्षिगणि महाराज, जिनकी आत्मा बुद्धरचित शास्त्र के अभ्यास से चलायमान हो गई थी, उन्होंने स्वयं जिस ललित विस्तरा का अवगाहन कर के प्रतिबोध पाया; इतना ही नहीं बल्कि अपने उपमितिभवप्रपंचकथा नाम के ग्रन्थ में 'यत्कर्तुः' = जिस ललित विस्तराके रचयिता (श्री हरिभद्रसूरिजी म०) को गुरु की तरह माना और नमस्कार किया; ऐसी इस ललित विस्तरा
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