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ॐ अर्ह नमः। प्रकाण्ड विद्वान, समर्थ शास्त्रकार, आचार्यपुरंदर श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजद्वारा विरचित (चैत्यवन्दनसूत्र-विवेचना)
श्री ललित विस्तरा एवं उसकी स्वपरतन्त्रकुशल आचार्यवर्य श्री मुनिचन्द्रसूरिजीद्वारा रचित
पानिजाका व्याख्या॥ और इन दोनों का संक्षिप्त हिंदी
प्रकाश
(ललित.) - प्रणम्य भुवनालोकं महावीरं जिनोत्तमम् । चैत्यवन्दनसूत्रस्य व्याख्येयमभिधीयते ॥१॥ (पञ्जिका) - नत्वानुयोगवृद्धेभ्यश्चैत्यवन्दनगोचराम् । व्याख्याम्यहं क्वचित्किंचिद् वृत्ति ललितविस्तराम् ॥१॥
समस्त सामान्य और विशेष स्वरूप से विश्व के ज्ञाता जिनेश्वरदेव श्री महावीर परमात्मा को प्रबल नमस्कार कर चैत्यवन्दनसूत्रकी यह (ललित विस्तरा नामकी) व्याख्या कही जाती है।
___ अनुयोगवृद्धों को प्रणाम कर चैत्यवन्दनसूत्रसम्बन्धी ललितविस्तरा नाम की विवेचना का मैं कहीं कहीं अल्प ही व्याख्यान (भावस्पष्टीकरण) करता हूँ। (प्रकाश: -)
जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये मोक्षप्राप्ति का त्रिपुटी साधन है जिनमें कि सम्यग्दर्शन प्रथम है। सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर देव के प्रति अनन्य प्रेम और उनके कहे हुए सभी तत्वोंपर अनन्य श्रद्धा जाग्रत करनेसे सम्यग्दर्शन की सिद्धि होती है। परन्तु इस प्रकार के प्रेम और श्रद्धाको प्रकट करनेवाला, एवं प्रकट हुए को अधिकाधिक निर्मल व सुस्थिर करनेवाला दर्शनाचार है। इस दर्शनाचार को सिद्ध करनेवाले अनेक अनुष्ठानों में से चैत्यवंदन एक अमोघ अनुष्ठान (किया) है। और चैत्यवन्दनके सम्यग् रीति के आचरण से आत्मा में ऐसे विशिष्ट शुभ अध्यवसाय प्रकट होते हैं कि जिन से सम्यग्दर्शनमें बाधक जो मोहनीय कर्म, मात्र उस ही का नहीं किन्तु ज्ञानावरणीयादि कर्मों का भी क्षय होता है।
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