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________________ ३४६ 'नमोसया सव्व सिद्धाणं' १५ सिद्ध 'नमोसया' प्रणिधान से शुभभाव पूरण ३४७ तीर्थसिद्ध आदि का स्वरूप ३४८ उत्कृष्टसिद्ध कब ? कितने ? वीर कौन ? ३५० इक्कोवि' गाथा की व्याख्या ० भवस्थिति-कायस्थिति ३५१ स्त्री मुक्ती में यापनीयतन्त्र का प्रमाण * स्त्री की अनेकविध योग्यता ३५२ अति तीव्र रौद्रध्यान और उत्कृष्ट शुक्लध्यान की व्याप्ति नहीं ३५५ स्त्रीयों को शुक्लध्यानसाधक पूर्वो का ज्ञान कहां । से ? ३५६ स्तुति अर्थवाद नहीं विधिवाद है । ३५८ सुवर्णमुद्रादि से विभूति का दृष्टान्त * सम्यक्त्व से भाव नमस्कार ० अर्थवाद में भी उपपादन __ यावच्चगराणं सूत्र ३५९ अहंदादि योग्यों का प्रणिधान यह चैत्य ० फल ३६. वैया ० कायोत्सर्ग से कायो • कर्ता में शुभ सिद्धि ३६१ औचित्यपालन समस्त योगों का बीज जयवीयराय सूत्र (प्रणिधान सूत्र) ३६२ ३ मुद्रा-योगमुद्रा-जिनमुद्रा-मुक्ताशुक्तिमुद्रा *पंचांग प्रणिपात ३६३ आशय-प्रणिधान-तीव्र संवेग-समाधि क्रमश: संवेग समाधि में तारतम्य, प्रथम गुण० में उचित ३६४ भवनिर्वेद-मार्गानुसारिता । ३६५ इष्टफल सिद्धि, - इष्ट = उपादेय से अविरुद्ध ० साधना समय अन्य औत्सुक्य बाधक ० लोकविरुद्ध त्याग क्यों ? ० गुरुजन पूजा ) परार्थकरण, लौकिक - लोकोत्तर सौंदर्य ३६६ वीतराग के आगे आशंसा (प्रणिधान) सफल ३६७, प्रणिधान की आवश्यकता आदि का दर्शक यन्त्र ० प्रणिधान की आवश्यकता और फल ० प्रणिधान यह निदान से विलक्षण क्यों ? ३६८ प्रणिधान यह सिद्धि का आद्य सोपान * प्रणिधानादि पांच आशयों का स्वरुप * प्रणिधानः प्रवृत्तिः विध्नजय: सिद्धिः विनियोग ३६९ प्रणिधान का अधिकारी प्रणिधान का स्वरूप ३७० विशुद्ध भावना, - मनसमर्पित. क्रियायथाशक्ति ३७१ प्रणिधान का प्रबल सामर्थ्य ० प्रणिधान का प्रत्यक्ष और परोक्ष उत्तम लाभ, ० श्रद्धा - वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा ० जिन पूजा-सत्कार न करने में दोष ३७२ प्रणिधान के प्रत्यक्ष-परोक्ष फल और दोनों के समन्वय का रहस्य उच्च साधना की कुंजी प्रणि० दीर्घाऽऽसेवनादि ३ ३७३ श्रद्धा-वीर्यादि वृद्धि-५ ३७४ सकल विशेषण-शुद्धि की विपरीत रूप से सिद्धि * प्रणिधान का माहात्म्य एवं उपदेशफल ३७५ तत्वज्ञ को सदुपदेश क्यों ? ३७६ चैत्यवंदन के अनन्तर कार्य ३७८ चैत्यवन्दन की सिद्धि के लिए ३३ कर्तव्य ३७८ तेत्तीस कर्त्तव्यों का विभाग अपुनर्बन्धक की इतर देवादि-प्रणाम की प्रवृत्ति सत्प्रवृति कैसे ? ३७९ नैगमनयानुसार - नैगमनय के दृष्टान्त * नैगमनय में प्रस्थक दृष्टान्त ३८० तत्त्वाविरोधी हृदय का उच्च महत्त्व * समन्तभद्रता केवल बाह्य धर्म प्रवृत्ति से नहीं * `सुप्तमण्डित-प्रबोध-दर्शन' सुप्तातीर्णदर्शन आदि दृष्टान्त ३८१ विभिन्न दर्शन-मान्य आदि धार्मिक ० निवृत्त भवाधिकार ० अवाप्त भवविपाक ० अपुनर्बन्धक २८२ चैत्यवंदन की अवज्ञा न करें ३८३ ग्रन्थकार की अन्तिम अभिलाषा २४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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