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________________ (पं०) इह चेष्टदेवतानमस्कारो मंगलं, चैत्यवंदनार्थोऽभिधेयः, तस्यैव व्याख्यायमानत्वात्, कर्तुस्तथाविधसत्त्वानुग्रहोऽनन्तरं प्रयोजनं, श्रोतुश्च तदर्थाधिगमः, परंपरंतु द्वयोरपि निःश्रेयसलाभः, अभिधानाभिधेयलक्षणो व्याख्यानव्याख्येयलक्षणश्च संबंधो बोद्धव्य: 'इति' मंगलादिनिरूपणासमाप्त्यर्थः ॥ ४ ॥ (ल०) अत्राह - चिन्त्यमत्र साफल्यं, चैत्यवंदनस्यैव निष्फलत्वात् इति । (पं0) अत्र = मंगलादिनिरूपणायां सत्यां, आह = प्रेरयति । चिन्त्यं = नास्तीति अभिप्रायः अत्र = चैत्यवन्दनव्याख्यानपरिश्रमे, साफल्यं = सफलभावः । कुत इत्याह - 'चैत्यवन्दनस्यैव निष्फलत्वात् ।' अत्र 'एव' शब्दो 'अपि' अर्थे । ततः पुरुषोपयोगिफलानुपलब्धेश्चैत्यवन्दमपि निष्फलमेव, किं पुनस्तद्विषयतया व्याख्यानपरिश्रमः ? ततो यन्निष्फलं तन्नारम्भणीयं, यथा कण्टकशाखामर्दनं, तथा च चैत्यवन्दनव्याख्यानमिति व्यापकानुपलब्धिः । 'इतिः' परवक्तव्यतासमाप्त्यर्थः । नाम जाति के विषय में गहराई से सोचे बिना यूँ ही कहिये कि जो प्राणी मात्र ज्ञानावरणीय आदि पाप कर्म की परतंत्रता से मुझ से भी अधिक मन्द बुद्धिवाले हैं, - अर्थात् संभवतः मुझसे जड बुद्धिवाले अन्य कोई नहीं होंगे; फिर भी कर्म विचित्र फलदायी होते हैं, उससे क्या संभव नहीं है ? इसलिये संभव है कि मुझसे भी कम बुद्धिमान् हों, - उनकी भलाई के लिये इस ग्रन्थ के विवरण की रचना करता हूँ। वैसा करने से उन मन्द जीवों को बोध स्वरूप उपकार होगा। अधिक बुद्धिवाले जीव अपनी प्रमोद (गुणानुराग) की भावना के विषय है, और समान बुद्धिशाली जीव मध्यस्थभाव के विषय हैं। इसलिये उनको इस व्याख्या से उपकार नहीं है। उपकार तो मन्द बुद्धिवालों पर होता है। इसी लिए व्याख्या करने का परिश्रम सार्थक है। ___ ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगल-अभिधेय (विषय) - प्रयोजन-सम्बन्ध, इन 'अनुबन्ध चतुष्टय' का जो निर्देश आवश्यक है वह पञ्जिकाकार स्पष्ट करते कहते हैं: - यहाँ अपने इष्ट देव श्री महावीर प्रभुको नमस्कार किया गया, यह मङ्गल हुआ। इस ग्रन्थ में कहे जानेवाले चैत्यवंदन सूत्र के पदार्थ अभिधेय अर्थात् ग्रन्थ के विषय हुए, चूँ कि उन्हीं का यहां व्याख्यान करना है । ग्रन्थ के प्रयोजन सम्बन्ध में ग्रन्थकर्ता का साक्षात् प्रयोजन है - जीवों पर बोधस्वरूप दया करना, और श्रोताओं का साक्षात् प्रयोजन है - चैत्यवंदन के अर्थ का बोध प्राप्त करना, कंर्ता व श्रोता दोनों का पारंपरिक प्रयोजन है मोक्ष की प्राप्ति करना । ग्रन्थ और उसमें कहने की वस्तु के बीच अभिधानअभिधेय नामक सम्बन्ध है। अथवा ललित विस्तरा नामक यह विवरण ग्रन्थ और मूल चैत्यवंदन सूत्र, इन दोनों के बीच व्याख्यान-व्याख्येय नामक सम्बन्ध है। यहाँ ललितविस्तरामें दिया गया 'इति' - शब्द मङ्गलादि चारों के निरुपण की समाप्ति का सूचक है। प्रश्न :- मङ्गलादि की आवश्यकता क्या है ? उ० - शुभ कार्यमें संभावित विघ्न मङ्गलसे दूर हो जाते है। ऐसे मङ्गल को जान कर वाचक को मङ्गल करने की शिक्षा मिलती है। ग्रन्थ का विषय जानने से प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष अपना इष्ट विषय देखकर ग्रन्थ पढने में प्रवृत्त होता है। ग्रन्थ रचना का उदात्त प्रयोजन दिखलाने से, ग्रन्थ निर्माण की प्रवृत्ति निरर्थक या अल्पमूल्यवती नहीं है, यह सूचित होता है । ग्रन्थ का सम्बन्ध जानने से, कर्ता असम्बद्धभाषक नहीं है, यह ज्ञात होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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