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________________ (ल०-वर्चीगृहकृमिदृष्टान्तः-) युक्त्यागमसिद्धमेतत्, तल्लक्षणानुपाती च, १. व!गृहकृमेर्यद्वद् मानुष्यं प्राप्य सुन्दरम् । तत्प्राप्तावपि तत्रेच्छा न पुनः संप्रवर्त्तते ॥ २. विद्याजन्माप्तितस्तद्वद् विषयेषु महात्मनः । तत्त्वज्ञानसमेतस्य न मनोऽपि प्रवर्त्तते ॥ ३. विषग्रस्तस्य मन्त्रेभ्यो निर्विषाङ्गोद्भवो यथा । विद्याजन्मन्यलं मोहविषत्यागस्तथैव हि ॥ ४. शैवे मार्गेऽत एवासौ याति नित्यमखेदितः । न तु मोहविषग्रस्त इतरस्मिन्निवेतरः ॥ ५. क्रियाज्ञानात्मके योगे सातत्येन प्रवर्त्तनम् । वीतस्पृहस्य सर्वत्र यानं चाहुः शिवाध्वनि । इति वचनात् । अवसितमानुषङ्गिकम् । प्रकृतं प्रस्तुमः । (पं०-) अस्यैव हेतोः सिद्ध्यर्थमाह-'युक्त्यागमसिद्धं, युक्तिः अन्वयव्यतिरेकविमर्शरूपा, आगमश्च 'जं जं समयं जीवो आविसई जेण जेण भावेणे'त्यादिरूपः, ताभ्यां सिद्धं = प्रतिष्ठितम्, 'एतत्' = कारणानुरूपत्वं कार्यस्य । सिद्धयतु नामेदमन्यकार्येषु, प्रकृते न सेत्यस्यतीत्यत आह 'तल्लक्षणानुपाति च' = युक्त्यागमसिद्धकारणानुरूपकार्यलक्षणानुपाति च विद्याजन्म । कुत इत्याह 'इति वचनादिति वक्ष्यमाणेन संबन्धः । वचनमेव दर्शयति 'व!गृहे'त्यादि श्लोकपञ्चकं, सुगमशब्दार्थः च । नवरम्, 'इतरस्मिन्निवेतरः' इति यथा इतरस्मिन् = संसारमार्गे, इतरो = मोहविषेणाग्रस्तो विवेकी, नित्यमखेदितो न याति; तथा शैवे मार्गे मोहविषग्रस्तो न याति; खेदितस्तु कोऽपि कथञ्चिद् द्रव्यत उभयत्रापि यातीति भावः । अभिप्रायः पुनरयम्, - अनुरूपकारणप्रभवे हि विद्याजन्मनि विषयवैराग्यक्रियाज्ञानात्मके योगे सातत्यप्रवृत्तिलक्षणं च शिवमार्गगमनं तत्फलमुपपद्यते (प्र०-उत्पद्यते, उपयुज्यते) नान्यथेति। ॥ इति श्री मुनिचंद्रसूरिकृतायां ललितविस्तरापंजिकायामर्हच्चैत्यदंडकः समाप्त : ॥ होगी। इसी की भावना (विचारणा) इस प्रकार की जा सकती है कि शुद्ध भाव से उपार्जित कर्म अवन्ध्य होता है; यानी प्रस्तुत कायोत्सर्ग ध्यान आदि स्वरूप शुभ भाव के द्वारा उपार्जित किया गया शातावेदनीयादि पुण्य कर्म अपने विपाककाल में फिर शुद्ध भाव रूप फल को जन्म देता है। इसमें उदाहरण है सुवर्णघट आदिका । सुवर्ण घट अगर भग्न भी हुआ तब भी परिणाम में सुवर्ण ही देता है, वैसे चांदी आदि का घड़ा तूटने पर भी चांदी आदि अवशिष्ट रहती है। इसी प्रकार प्रस्तुत कर्म भी। तात्पर्य, शुद्ध भाव से उपार्जित पुण्यानुबन्धी पुण्य कर्म का विपाक होने पर शुद्ध भाव जाग्रत रहता है, क्योंकि वैसे कर्म का उदय होने पर विद्या यानी विवेक की उत्पत्ति होती है। इसका कारण यह है कि कार्य कारणानुरुप होता है, कार्यस्वभाव कारण के स्वभाव का अनुकरण करता है; इसलिए शुद्ध भाव से उपार्जित कर्म के कार्य में शुद्ध भाव क्यों न हो? कारण के अनुरुप कार्य होता है, यह बात युक्ति और आगम से सिद्ध है । युक्ति का अर्थ अन्वय व्यतिरेक;- वैसा कारण हो तभी वैसा कार्य बने यह अन्वय (तत्सत्त्वे तत्सत्त्वम् अन्वयः); और वैसा कारण न हो तभी वैसा कार्य न बन सके यह व्यतिरेक, (तदसत्त्वे तदभावः व्यतिरेकः) । आगमप्रमाण यह है- 'जं जं समयं जीवो आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समये सुहासुहं बन्धए कम्मं ॥' (उपदेशमाला); अर्थात् जिस जिस समय में जीव जिस जिस शुभ या अशुभ भाव से प्रवेश करता है, उस उस समय में वह शुभ या अशुभ कर्म उपार्जित करता है; शुभ भाव से शुभ कर्म और अशुभ भाव से अशुभ कर्म ।' यहां कार्य कारण के अनुरुप हुआ । यह नहीं कह सकते हैं कि 'अन्यत्र वैसा होगा, लेकिन प्रस्तुत में वैसा नहीं है; क्यों कि प्रस्तुत में भी विद्या २९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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