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________________ (ल०-कायोत्सर्गान्तेः- ) स हि कायोत्सर्गान्ते यद्येक एव ततो 'नमो अरहंताणं 'ति नमस्कारेणोत्सार्या स्तुतिं पठत्यन्यथा प्रतिज्ञाभङ्गः, 'जाव अरहंताणं'.... इत्यादिनास्यैव प्रतिज्ञातत्वात्, नमस्कारत्वेनास्यैव रूढत्वाद्, अन्यथैतदर्थाभिधानेऽपि दोषसम्भवात्, तदन्यमन्त्रादौ तथादर्शनादिति । अथ बहवस्तत एक एव स्तुतिं पठति, अन्ये तु कायोत्सर्गेणैव तिष्ठन्ति यावत्स्तुतिपरिसमाप्तिः । अत्र चैवं वृद्धा वदन्ति,- यत्र किलाऽऽयतनादौ वन्दनं चिकीर्षितं तत्र यस्य भगवतः सन्निहितं स्थापनारूपं, तं पुरस्कृत्य प्रथमकायोत्सर्गः स्तुतिश्च, तथाशोमनभावजनकत्वेन तस्यैवोपकारित्वात् । ततः सर्वेऽपि नमस्कारोच्चारणेन पारयन्तीति । ॥ व्याख्यातं वन्दनाकायोत्सर्गसूत्रम् ॥ (विवेक) की उत्पत्ति रुप कार्य युक्ति-आगम से सिद्ध कारणानुरुप कार्य के लक्षण का अनुसरण करनेवाला ही है। यह कैसे, सो ललितविस्तरा में 'व!गृहकृमेर्यद्वत्...' इन पांच श्लोकों से बतलाया गया है। श्लोकों का भाव यह है, .(१) जिस प्रकार शौचालय के कृमि में से सुन्दर मनुष्य भव पा कर जीव को अब शौचालय में शौच के लिए जाना भी पडे तो भी, वहां यह कृमि के भव के समान वापस रुचि वाला नहीं होता है; . (२) उसी प्रकार अविद्या (अविवेक) की अवस्था में से विद्या (विवेक) का जन्म पाने पर महात्मा बने हुए व्यक्ति का मन तत्त्वज्ञान-संपन्नता के कारण इन्द्रियों के शब्द-रुपादि विषयों में नहीं जाता है, उसे रुचि ही नहीं होती है। . (३) जिस प्रकार मन्त्र के द्वारा, विषव्याप्त पुरुष का शरीर, निर्विष होता है, उसी प्रकार विद्या जन्म होने पर मोह-विष का त्याग अवश्य होता है। . (४) विद्या का जन्म होने के कारण ही वह कल्याण के मार्ग पर सदा अ-खिन्न यानी उत्साहित होकर चलता है; जब कि मोहविष से व्याप्त पुरुष वैसा नहीं कर सकता है। यह ऐसा है कि जिस प्रकार मोहविष से अव्याप्त विवेकी पुरुष संसार-मार्ग पर अखिन्न हो नहीं चल सकता इस प्रकार मोहग्रस्त पुरुष मोक्षमार्ग पर अखिन्न हो कर नहीं चल सकता; खिन्न होकर कोई कथंचित् द्रव्य से अर्थात् भावशून्य हृदय से दोनों मार्ग पर चले ऐसा हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि विवेक का उदय अगर अनुरुप कारण से ही हुआ हो तभी ऐसा होगा कि निस्पृहता यानी. (५) विषय वैराग्य पूर्वक सम्यक् क्रिया एवं सम्यग् ज्ञानात्मक योग में सतत रूप से प्रवृत्ति होती है; और विरागी की यही ज्ञान-क्रिया योग की सतत प्रवृत्ति वह कल्याणमार्ग-मोक्षमार्ग पर गमन है, अन्यथा नहीं । ज्ञान-क्रिया में प्रवृत्ति करने का फल मोक्षमार्ग-गमन है किन्तु वह विषयों से वैराग्ययुक्त होने पर ही उत्पन्न हो सकता है और विषयों से वैराग्य शुद्ध भाव स्वरूप अनुरूप कारण से ही उत्पन्न विवेक से जाग्रत होता है। इन वचनों से कार्य का कारणानुरूप स्वरूप सिद्ध होता है। प्रासङ्गिक वस्तु निर्णीत हो गई, अब प्रस्तुत की विचारणा करते हैं। कायोत्सर्ग पूरा करने के बाद : कायोत्सर्ग में आठ उच्छ्वास-प्रमाण ध्यान समाप्त होने पर अगर वह अकेला साधक हो, तो वह 'नमो अरिहंताणं' उच्चारण पूर्वक अर्हद्-नमस्कार करके कायोत्सर्ग पारे और नीचे लम्बे किये हुए हाथ को उठा कर अंजलि जोड कर स्तुति पढे । ऐसा नमस्कार अगर न पढे तो प्रतिज्ञा का भङ्ग होगा; क्यों कि 'जाव अरहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेण न पारेमि ताव कायं.... वोसिरामि'-वैसा पहले पढ़ कर इसी नमस्कार से पारने की प्रतिज्ञा की २९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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