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________________ 'अन्नत्थ ऊससिएणं' सूत्र ( अन्यत्र उच्छ्वसितेन) (ल०-कायोत्सर्गापवादा:-) किं सर्व्वथा तिष्ठति कायोत्सर्गमुत नेत्याह 'अन्नत्थ ऊससिएणमित्यादि । (अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइए उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छा सुहुमेहिं अङ्गसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं, एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ) अन्यत्रोच्छ्वसितेन- उच्छसितं मुक्त्वा योऽन्यो व्यापारस्तेनाव्यापारवत इत्यर्थः । एवं सर्वत्र भावनीयम् । तत्रोद्धर्वं प्रबलं वा श्वसितमुच्छ्वसितं तेन । 'नीससिएणं 'ति - अधः श्वसितं निःश्वसितं, तेन । 'खासिएणं'ति-कासितेन कासितं प्रतीतं । 'छीएणं 'ति-क्षुतेन, इदमपि प्रतीतमेव । 'जंभाइएणं 'तिजृम्भितेन, विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमो जृम्भितमुच्यते । 'उड्डुएणं 'ति - उद्गारितं प्रतीतं, तेन । 'वायनिसग्गेणं 'ति-अधिष्ठानेन पवननिर्गमो वातनिसग्ग भण्यते, तेन । 'भमलीए 'त्ति-भ्रमल्या, इयं चाकस्मिकी शरीरभ्रमिः प्रतीतैव । 'पित्तमुच्छाए 'ति-पित्तमूर्च्छया, पित्तप्राबल्यान्मनाङ् मूर्च्छा भवति । अप्रेक्षावान् का सूत्र पठन मिथ्यात्व विकारवश मृषा होने से उसको नहीं किन्तु प्रेक्षावान पुरुष को ही कर प्रस्तुत सूत्र सफल है, ऐसा विश्वास करने योग्य है। 'अन्नत्थ ऊससिएणं'... सूत्र - 'अरिहंत चेइयाणं' सूत्र में अन्त में 'ठामि काउस्सग्गं' अर्थात् मैं कायोत्सर्ग में रहता हूँ, ऐसा कहा गया है। तो प्रश्न यह होता है कि कायोत्सर्ग में संपूर्ण रहना या नहीं ? अर्थात् क्या कायप्रवृत्ति का सर्वथा त्याग किया जाता है ? उत्तर में कहते हैं 'अन्नत्थ ऊससिएणं'.. उच्छ्वसित आदि से अन्यत्र; अर्थात् उसको छोडकर अन्य काय प्रवृत्ति का मैं त्याग करता हूँ, काया का उत्सर्ग करता हूँ। ऐसे 'नीससिएणं' इत्यादि सभी पदों में समझना । उच्छ्वसित का अर्थ है ऊँचा श्वास; या प्रबल श्वास; उससे अन्यत्र । 'नीससिएणं' निःश्वसित अर्थात् नीचा श्वास, उससे अन्यत्र । 'खासिएणं' कासित से अन्यत्र कासित खांसी अर्थ में प्रसिद्ध है। 'छिएणं' क्षुत से अन्यत्र; यह भी छींक अर्थ में प्रसिद्ध है । 'जंभाइएण ' जृम्भित से अन्यत्र; चौडे खुले मुख में से प्रबल वायु का निकलना यह 'जृम्भितं ( जम्हाई) कहा जाता है । उड्डुएणं' उद्गारित डकार अर्थ में प्रसिद्ध है, उससे अन्यत्र । 'वायनिसग्गेणं' गुदा में से वायु का निकलना, इस बात निसर्ग कहा जाता है; इससे अन्यत्र । 'भमलीए' भ्रमली से अन्यत्र शरीर में अकस्मात् होने वाले चक्कर को भ्रमली कहते हैं । 'पित्तमुच्छाए' पित्तमूर्च्छा से अन्यत्र; पित्त के प्राबल्य से कुछ बेहोशी हो जाती है; इससे अन्यत्र यानी इसको छोडकर कायक्रिया का त्याग । ‘सुहुमेहिं अंगसञ्चालेहिं’ ज्ञात अज्ञात रोमाञ्च आदि गात्र - चलन स्वरूप सूक्ष्म अङ्गसञ्चार से अन्यत्र कायोत्सर्ग । सुहुमेहि खेलसञ्चालेहिं' सूक्ष्म कफसञ्चार से अन्यत्र कायोत्सर्ग । कफ का सञ्चार वही कि जो खींच कर किया हुआ नहीं, किन्तु जो सहज और दुर्निवार है । क्यों कि आत्मा वीर्यसयोगी सद्द्रव्य है अर्थात् वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम वश प्रादुर्भूत विशिष्ट आत्मशक्ति से अपने मन-वचन-काय २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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