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(ल०-अप्रेक्षाकारियथेच्छप्रवर्तकस्य मृषावाद :-)अप्रेक्षावतस्तु यदृच्छाप्रवृत्तेः नटादिकल्पस्य गुणद्वेषिणो मृषावाद एव, अनर्थयोगात् । तत्परितोषस्तु तदन्यजनाधःकारी मिथ्यात्वग्रहविकारः । यथोक्तमन्यैः,दण्डिखन्डनिवसनं भस्मादिविभूषितं सतां शोच्यम् । पश्यत्यात्मानमलं ग्रही नरेन्द्रादपि ह्यधिकम् ॥१॥ मोहविकारसमेतः पश्यत्यात्मानमेवमकृतार्थम् । तद्व्यत्ययलिङ्गरतं कृतार्थमिति तद्ग्रहावेशात् ॥ २ ॥ इत्यादि । तस्मात्प्रेक्षावन्तमङ्गीकृत्यैतसूत्रं सफलं प्रत्येतव्यमिति ।
(पं०-) तत्परितोषे'त्यादि, तेन = मृषावादेन मिथ्याकायोत्सर्गरूपेण परितोषः कृतार्थतारूपः, 'तुः' पुनरर्थे, 'तदन्यजनाधःकारी = सम्यक्कायोत्सर्गकारिलोकनीचत्वविधायी, 'मिथ्यात्वग्रहविकारो,' मिथ्यात्वमेवोन्मादरूपतया, राहो = दोषविशेषः, तस्य विकार इति । 'एवमि'ति ग्रहप्रकारेण । 'तद्व्यत्ययलिङ्गरतमिति, तस्य = कृतार्थस्य, व्यत्ययः = अकृतार्थः, तस्य लिङ्गानि उच्छृङ्खलप्रवृत्त्यादिनि, तेषु रतम् । तद्ग्रहावेशादि 'ति, स एव ग्रहो मोहविकार: तद्ग्रहः, तस्य आवेशाद् = उद्रेकात् । प्राप्ति होती है। जिस प्रकार इक्षु में से उस उस प्रकार के सम्यग् उपाय के व्यापार से शक्कर तक की प्राप्ति होती है।
अप्रेक्षावान् का मृषा उच्चारण :
'सद्धाए... ठामि काउस्सग्गं' का उच्चारण सभी के द्वारा सत्य ही किया जाता है ऐसा नियम नहीं है, क्यों कि जो अप्रेक्षावान्-अविचारक पुरुष है, वह श्रद्धा आदि से नहीं, किन्तु उच्छृङ्खलता से नट आदि के मुताबिक सूत्रोच्चारण करता है; इस लिए ऐसा उच्चारण मृषावाद ही है। ऐसे पुरुष को महामोहवश गुण के प्रति अरुचि है, अत एव वर्तमान में तो नहीं किन्तु भविष्य में भी श्रद्धादि गुण प्राप्त हो, ऐसा कोई उद्देश्य भी यह सूत्र पढ कर किये जा रहे कायोत्सर्गानुष्ठान में नहीं है। इसलिए वह किसी रूप में सत्य भाषण नहीं कहा जा सकता। (अन्यथा श्रद्धादि गुण अगर वर्तमान में नहीं है, किन्तु गुणसचिवहा प्राप्त करने की अभिलाषा है और ईसलिए इस सूत्रपाठ पूर्वक कायोत्सर्ग करता है, तो वहां सत्य उच्चारण पूर्वक कायोत्सर्ग के कारणीभूत कायोत्सर्गभ्यास होने से मृषावाद नहीं कहा जाएगा।) गुण की अरुचि वाले का सूत्र-उच्चारण तो अभ्यास रूप भी कायोत्सर्ग नहीं बन सकता, वरन् अनर्थकारी होता है, इसलिए वह मृषा भाषण ही है, और उसका कायोत्सर्ग मिथ्या है।
ऐसे मिथ्या कायोत्सर्ग की चेष्ठा रूप मृषावाद पर किया जाता परितोष, यानी 'मैंने कायोत्सर्ग किया', - ऐसा कृतार्थता का अभिमान (भ्रान्त आत्मसंतोष), -सम्यक् कायोत्सर्गकारी लोगों को नीचे करने वाला होने से एक प्रकार का मिथ्यात्वग्रह-विकार है; अर्थात् जैसे उन्मादकारी पिशाचावेश में विलक्षण हास्य-गान आदि चेष्ठा का होना एक विकार है वैसे यहां मिथ्यात्व रूप दोष विशेष का ही, यह कायोत्सर्ग चेष्ठा, एक विकार है।
इसी ढंग से अन्य मतों में भी कहा है कि;- "जो दण्डधारी संन्यासी ग्रहाविष्ट पुरुष की तरह उन्मत है, वह एक वस्त्र का टुकडा पहन कर और भस्म तिलकादि से विभूषित होकर अपने आपको राजा से भी अधिक देखता है। वह मोह के विकार से पीड़ित होने की वजह से अकृतार्थ भी अपनी आत्मा को भूतावेश की रीति से कृतार्थ आत्मा के लक्षण से विपरीत उच्छृङ्खल प्रवृत्ति आदि लक्षण में रक्त होता हुआ भी कृतार्थ ही समझता है; कारण, उसे ग्रह रूप मोह-विकार का अत्यन्त आधिक्य है।''..... इत्यादि।
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