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________________ है, तत्पश्चात् ही धारणा और बाद में ही अनुप्रेक्षा पैदा हो सकती है। मात्र उत्पत्ति नहीं किन्तु वृद्धि भी इसी क्रम से होती है; अर्थात् श्रद्धा बढ़ने पर ही मेधा बढ़ती है, मेधा बढ़ने पर ही धृति बढ़ती है, धृति बढ़ने पर ही धारणा, एवं धारणा बढ़ने पर ही अनुप्रेक्षा बढ़ सकती है । 'ठामि' का अर्थ : क्रियाकाल - निष्ठाकाल का ऐक्य : - 'ठामि काउस्सग्गं' अर्थात् कायोत्सर्ग में मैं रहता हूँ । इस कथन से प्रतिपत्ति यानी कायोत्सर्ग का प्रारम्भ दिखलाते हैं । अब मैं कायोत्सर्ग का प्रारम्भ करता हूँ। पहले 'करेमि काउस्सग्गं' अर्थात् कायोत्सर्ग करता हूँ, करूंगा; इस कथन से क्रिया की सन्मुखता व्यक्त की गई है। अब क्रिया का प्रारम्भ बहुत निकट है इसलिए 'ठामि' कहते हैं । प्र०-‘ठामि काउ०' का अर्थ कायोत्सर्ग में रहने का है और अभी तो 'अन्नत्थ ऊससिएणं' सूत्र पढ़ना है बाद में कायोत्सर्ग-प्रारम्भ होने वाला है, तब फिर 'कायोत्सर्ग में रहता हूँ यह वहां कहना उचित है, यहां क्यों कहा ? उ०- क्रियाकाल एवं निष्ठाकाल (समाप्तिकाल ) दोनों में कथंचिद् अभेद होता है, निश्चयनय की अपेक्षा से दोनों एक हैं, इसलिए यहां 'ठामि' कहना असङ्गत नहीं है। निश्चयनय मानता है कि जो क्रियाकाल को प्राप्त हुआ, - अर्थात् कराना शुरु हुआ वह वहां ही इतने अंश में कृत ही हुआ, निष्ठित (समाप्त) ही हुआ। ऐसा अगर न माना जाए किन्तु क्रिया हो जाने के बाद ही याने हुआ माना जाए, तो क्रिया बंद होने के वक्त भी, क्रिया के अप्रारम्भकाल में जैसा निष्टित नहीं है, उस प्रकार निष्ठित नहीं होगा । कारण, क्रिया-निवृत्ति एवं क्रिया-अनारम्भ दोनों वक्त क्रिया का अभाव तुल्य है। इसलिए मानना दुर्वार है कि क्रिया के निवृत्ति काल ही नहीं किन्तु क्रियाकाल मे भी वह अवश्य निष्ठित याने कृत होता है, अर्थात् जो क्रियमाण है वह वहां क्रियाकाल में ही इतने इतने अंश में कृत है । क्रियमाण अवश्य कृत है । हां, जो कृत है वह क्रियमाण होने का नियम नहीं है; क्यों कि वह या तो क्रियमाण भी हो सकता है। अथवा निवृत्त क्रिया वाला भी हो सकता है। कहा गया है कि 'इसलिए यहां क्रियमाण अवश्य कृत है, और कृत में विकल्प है, कुछ कृत क्रियमाण होता है अथवा कुछ शान्तक्रिय होता है। यह निश्चयनय का मत है। व्यवहारनय क्रियमाण और कृत को अर्थात् क्रियाकाल एवं कृतकाल (निष्ठाकाल) को अलग अलग मानता है; जब क्रियमाण अवस्था है तब कृत अवस्था नहीं, जब कृत अवस्था है तब क्रियमाण नहीं । कहा गया है कि जिस कारण घड़ा आदि कार्य उसकी उत्पादन क्रिया से प्रारम्भ में दिखाई नहीं देता, एवं शिबक-स्थानकोश आदि बनने के कालमें भी दृश्यमान नहीं किन्तु क्रिया के अन्त में जाकर दिखाई पड़ता है, इसलिए क्रियमाण यह कृत नहीं है, अर्थात् जहां तक क्रियमाण है वहां तक निष्पन्न नहीं है । अतः यहां ‘ठामि काउस्सग्गं' कहने पर कायोत्सर्ग शुरु करने के लिए काया तय्यार होती है तो निश्चयनय की अपेक्षा से कायोत्सर्ग-क्रिया के अंश को ले कर कायोत्सर्ग क्रिया हुई ऐसा समझना । इस लिए यहां 'ठामि काउस्सगं' कहना अनुचित नहीं है । ‘करेमि काउस्सग्गं, ठामि काउस्सग्गं' कहने से कायोत्सर्ग का अभ्युपगम (स्वीकार) किया; और वह ‘सद्धाए....' इत्यादि कहने द्वारा श्रद्धादि से संपन्न होने का सूचित किया । इससे प्रदर्शित किया गया कि सद् अनुष्ठान अभ्युपगम पूर्वक और श्रद्धा मेधादि से समन्वित होना चाहिए । अभ्युपगम करने से प्रणिधान निष्पन्न होता है, और श्रद्धा मेधादि से आगे कहे जाने वाले आदरादि लक्षण प्राप्त होते हैं । - २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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