SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ***** ( ल०-' वड्ढमाणीए ठामि' : नि० व्य० नयौ:- ) वर्द्धमानया वृद्धिं गच्छन्त्याः नावस्थितया । प्रतिपदोपस्थाय्येतत्, - श्रद्धया वर्द्धमानया, एवं मेधया०, • इत्यादि । लाभक्रमादुपन्यासः श्रद्धादीनां, श्रद्धायां सत्यां मेधा, तद्भावे धृतिः, ततो धारणा, तदन्वनुप्रेक्षा । वृद्धिरप्यनेनैव क्रमेण । एवं तिष्ठामि कायोत्सर्गमित्यनेन प्रतिपत्तिं दर्शयति । प्राक् 'करोमि करिष्यामीति क्रियाभिमुख्यमुक्तं, सांप्रतं त्वासन्नतरत्वात् क्रियाकाल-निष्ठाकालयोः कथंचिदभेदात् 'तिष्ठाम्ये' वाहम् । अनेनाभ्युपगमपूर्वं अद्धादिसमन्वितं च सदनुष्ठानमिति दर्शयति । (पं०-) 'प्रतिपत्ति' मिति, प्रतिपत्तिः कायोत्सर्गारम्भरूपा, तां, 'क्रियाकालनिष्ठाकालयोः कथंचिदभेदादि ति कथंचिद् = निश्चयनयवृत्त्या । स हि क्रियमाणं = क्रियाकालप्राप्तं कृतमेव = निष्ठितमेव मयते; अन्यथा क्रियोपरमकाले क्रियानारम्भकाल इवानिष्ठितत्वप्रसङ्गात्, उभयत्र क्रियाऽभावाविशेषात् । कृतं पुनः क्रियमाणमुपरतक्रियं वा स्यादिति । यदुक्तं, 'तेणेह कज्जमाणं नियमेण कयं, कयं च भयणिज्जं । किञ्चिदिह कमाणं वरयकिरियं व होज्जाहि ॥ १ ॥ व्यवहारनयस्तु 'अन्यत् क्रियमाणमन्यच्च कृतमिति मन्यते । यदाह, 'नारम्भे च्चिय दीसइ, न सिवादद्धाए दीसइ तयन्ते । जम्हा घडाइकज्जं न कज्जमाणं कयं तम्हा ॥ १ ॥ ततोऽत्र निश्चयनयवृत्त्या व्युत्त्रष्टुमारब्धकायस्तद्देशापेक्षया व्युत्सृष्ट एव दृष्टव्य इति । होती है, जो कि प्रधान यानी सामर्थ्ययोग प्रेरक सत्त्व - पदार्थ का कारण होने से अपूर्वकरण को आकर्षित करता है, यह स्वयं उक्तवत् सोच लेने योग्य है। पालन; यहां 'श्रवण' है धर्मशास्त्र को सुनना; 'पाठ' है उसके सूत्रों को पढ़ना, - 'प्रतिपत्ति' यह सूत्र के अर्थ का प्रतीतियुक्त बोध रूप है; 'इच्छा' है शास्त्रोक्त आज्ञा के अनुष्ठान की अभिलाषा; 'प्रवृत्ति' है शास्त्राज्ञा का और 'प्रवृत्ति आदि' में 'आदि' शब्द से विघ्नजय, सिद्धि एवं विनियोग ग्राह्य है; वहां 'विघ्नजय' यह प्रवास में कण्टक- ज्वर-1 -दिङ्मोह समान जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट विघ्नों पर विजय प्राप्त करने स्वरूप है; 'सिद्धि' है अनुष्ठान के विषयभूत अहिंसा पदार्थ को आत्मसात् कर लेना; और 'विनियोग' है उस सिद्ध पदार्थ का यथायोग्य नियोजन; सिद्ध धर्म गुण का दूसरों में स्थापन करना । श्रद्धा मेधादि रखते हुए यदि श्रवण, पाठ इत्यादि विनियोग तक किया जाए तभी वे श्रद्धादि परिपक्व हो अंत में महासमाधि को उत्पन्न कर सकेंगे, अन्यथा नहीं । इतना ध्यान रखें कि प्रस्तुत में सद्धाए मेहाए इत्यादि पदों का उच्चारण उसी प्रकार कपट भाव और पौद्गलिक आशंसा से भी रहित किया जाए तभी सम्यग् अनुष्ठान संपन्न होता है। ऐसा अनुष्ठान कर सकने वाला ही पुरुष इस प्रकार के कायोत्सर्ग का अधिकारी है; - यह सूचित करने के लिए 'सद्धाए.... ' इत्यादि पाठ है। 'वड्ढमाणीए' का अर्थ : श्रद्धादि पांच की क्रमिक उत्पत्ति-वृद्धि - वड्ढमाणीए अर्थात् बड़ती हुई किन्तु अवस्थित नहीं । यह पद सद्धाए इत्यादि प्रत्येक पद के साथ लगने वाला है; इसलिए अर्थ यह होता है कि वर्धमान श्रद्धा से, वर्धमान मेधा से, वर्धमान धृति से, वर्धमान धारणा से, एवं वर्धमान अनुप्रेक्षा से । तात्पर्य श्रद्धादि पांचो ही वैसे-के-वैसे रहने वाले नहीं किन्तु प्रतिसमय बढ़ते रहने चाहिए पहले 'सद्धाए' बाद 'मेहाए' तत्पश्चात् 'धीइए' इत्यादि क्रम से जो उपन्यास किया गया है यह उन श्रद्धा धादिप्राप्ति के क्रमानुसार है। पहले श्रद्धा उत्पन्न हो, पीछे मेधा उत्पन्न होगी; मेधा के होने पर ही धृति होती २७७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy