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(ल०-) ( श्रद्धादीनि महासमाधिबीजानि:-) एतानि श्रद्धादीनि अपूर्वकरणाख्यमहासमाधिबीजानि, तत्परिपाकातिशयतस्तत्सिद्धेः । परिपाचना त्वेषां कुतर्कप्रभवमिथ्याविकल्पव्यपोहतः श्रवणपाठ-प्रतिप्रतीच्छा-प्रवृत्त्यादिरू पाः; अतिशयस्त्वस्याः तथास्थैर्यसिद्धिलक्षणः प्रधानसत्त्वार्थहेतुरपूर्वकरणावह इति परिभावनीयं स्वयमित्थम् । एतदुच्चारणं त्वेवमेवोपधाशुद्धं सदनुष्ठानं (प्र०.... अनुष्ठानं ) भवतीति । एतद्वानेव चास्याधिकारीति ज्ञापनार्थम् ।
(पं०-) 'श्रवणपाठप्रतिपत्तीच्छाप्रवृत्त्यादिरूपा' इति श्रवणं = धर्मशास्त्राऽऽकर्णनं, पाठः = तत्सूत्रगतः, प्रतिपत्तिः सम्यक्तदर्थप्रतीतिः, 'इच्छा' = शास्त्रोक्तानुष्ठानविषया चिन्ता, प्रवृत्तिः = तदनुष्ठानम्, 'आदि' शब्दाद्विघ्नजय-सिद्धि विनियोगा दृश्याः; तत्र विजजयः = जघन्यमध्यमोत्कृष्टप्रत्यूहाभिभवः, सिद्धिः = अनुष्ठेयार्थनिष्पत्तिः, विनियोगः = तस्या यथायोग्यं व्यापारणम् । ततस्ते रूपं यस्याः सा तथा।
जिस प्रकार रत्न का संशोधक यानी रत्न शुद्ध करनेवाला अग्नि रत्न को चारों और से व्याप्त कर लेने पर रत्न में लगी सभी मलिनता को जला करके उसमें बिलकुल निर्मलता का संपादन करता है, ठीक उसी प्रकार अनुपेक्षा रूप अग्नि आत्मा स्वरूप रत्न को सम्यक् प्राप्त होता हुआ उसके कर्ममल यानी समस्त घाती कर्मों को जला देता है और निर्मलता यानी केवलज्ञान-दर्शन का संपादन करता है क्यों कि केवल ज्ञानादि यह आत्मा का मूलस्वभाव है। लेकिन वह कर्म से आवृत्त है किन्तु अनुप्रेक्षा-तत्त्वचिन्तन का ऐसा स्वभाव है कि अतत्त्वरमणता से लगे कर्ममल का नाश कर दे। तब सहज है कि केवलज्ञानादि रूप शुद्धता प्रगट हो जाए।
श्रद्धादि पांचो 'अपूर्वकरण' संज्ञक महासमाधि के बीज :
ये श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुपेक्षा वे पांचों ही अपूर्वकरण नामक महासमाधि के बीज हैं। बीजों का पाक अपूर्वकरण है। वह महासमाधि है। समाधि अप्रमत्त भाव से की जाती रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र) में आत्मरमणता स्वरूप है, और महासमाधि अपूर्वकरण है, जो कि आठवें गुणस्थान में प्रादुर्भूत होता है, और वह आत्मा की उपर्युक्त रत्नत्रयी-रमणतापूर्वक किये गए तत्त्व रमणता के परम विकास स्वरूप है। ऐसी महासमाधि स्वरूप पाक का सर्जन करने के लिए बीज आवश्यक हैं, और वे हैं श्रद्धा, मेधादि पांच । इन पांचो को बीज इसलिए कहते हैं कि उनका अतिशय परिपाक होने से वह अपूर्वकरण सिद्ध होता है। क्यों कि? (१) जलशोधक रत्न के समान चित्तशोधक बलिष्ठ श्रद्धा, (२) रोगी के औषधग्रहणादर समान शास्त्रग्रहण की मेधा; (३) चिन्तामणि की प्राप्ति समान जिनधर्म प्राप्ति में धृति, एवं (४) माला परोने वाले की तरह स्थानादि योगगत धारणा - ये श्रद्धादि चार अत्यन्त बढ़ती रहने से फलतः (५) रत्नशोधक अग्नि के समान तत्त्वार्थचिन्तन रूप अनुप्रेक्षा अत्यन्त बढ़ती रहती है। यही अत्यन्त परिपक्व श्रद्धा-मेधा-धृति-धारणापूर्वक वृद्धिगत अनुप्रेक्षा का परिपाक अंत में जा कर अपूर्वकरण--महासमाधि की तत्त्वरमणता में पर्यवसित होता है। इसीलिए ये श्रद्धादि महासमाधि के बीज कहे जाते हैं।
श्रवण-पाठ-प्रतिपत्ति-इच्छा-प्रवृत्ति-विजजय आदि :
श्रद्धादि बीजों का परिपाक इस प्रकार होता है :- इन श्रद्धा-मेधादि की वृद्धि से कुतर्क-प्रेरित मिथ्या विकल्पों की निवृत्ति होती है और वे हट जाने से श्रवण-पाठ-प्रतिपत्ति-इच्छा-प्रवृत्ति-विघ्नजय आदि जो प्राप्त होते रहते हैं यही परिपाक क्रिया है। यह परिपाक-क्रिया अतिशय बढ जाने पर उच्च स्थैर्य एवं सिद्धि में परिणत
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