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________________ (ल०-'मेहाए'-आतुरौषधदृष्टान्त:-) एवं मेधया, न जडत्वेन । मेधा ग्रन्थग्रहणपटुः परिणामः, ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमजः चित्तधर्म इति भावः । अयमपीह सद्ग्रन्थप्रवृत्तिसारः पापश्रुतावज्ञाकारी गुरुविनयादिविधिवल्लभ्यो महांस्तदुपादेयपरिणामः आतुरौषधाप्त्युपादेयतानिदर्शनेन;- यथा प्रेक्षावदातुरस्य तथा तथोत्तमौषधावाप्तौ विशिष्टफलभव्यतयेतरापोहेन तत्र महानुपादेयभावो ग्रहणादरश्च, एवं मेधाविनो मेधासामर्थ्यात् सद्ग्रन्थ एवोपादेयभावो ग्रहणादरश्च, नान्यत्र, अस्यैव भावौषधत्वादिति । आत्मा, कर्म और फल का संबन्ध, यह वास्तविक संयोग है किन्तु औपचारिक नहीं, जैसा कि बुद्धशिष्यने माना हुआ क्षणसंतान के व्यवहार में औपचारिक संबन्ध । बौद्ध मत में कहा गया है कि जिस क्षणसंतान में जो कर्मवासना प्राप्त है उसी में, कपास में रक्तता की तरह, फल का अनुसन्धान वह करती है। कपास के जिस रक्तता-संपादनार्थ चर्णादियोग किया जाता है बाद में उसी पर उत्पन्न कपास में रक्तता होती है: इस प्रकार वस्तु प्रतिक्षण नष्टभ्रष्ट एवं नव्यजात होने पर भी एक वस्तु की वासना का कार्य दूसरी विलक्षण वस्तु में पैदा होने की आपत्ति नहीं है, क्यों कि कार्य तो, जिस वस्तु की क्षणसंतान में वैसी वासना होगी, वहां ही हो सकता है। उदाहरणार्थ, पटक्षण-संतान में घटक्षणवासना का अर्थात् मिट्टी या घट के वर्णादि संस्कार का कार्य नहीं होगा । बौद्ध ने यहां मिट्टी वगैरह बिलकुल क्षणनष्ट मानने पर भी उत्तरक्षणोत्पन्न घटादि के साथ इसका जो कार्यकारण संबन्ध माना है, वह कोइ मुख्य वस्तु नहीं किन्तु औपचारिक काल्पनिक है। उसी प्रकार आत्मा, कर्म और फल का भी औपचारिक संबन्ध हुआ । जैन मत में वैसा नहीं किन्तु वस्तु नित्यानित्य होने से वास्तविक संबन्ध है; क्यों कि पूर्वक्षण की वस्तु पर्याय रूप से नष्ट होने पर भी द्रव्य रूप से अवस्थित है। संबन्धास्तित्व आदि, पद में 'आदि' शब्द से यह लेना, 'आत्मास्ति, स परिणामी, बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण । मुक्तश्च तद्वियोगाद्धिसाहिंसादि तद्धेतुः" इत्यादि अनुसार आत्मा सद् है, परिणामी नित्य है, विविध वास्तव कर्म से बन्धा हुआ है, कर्म के वियोग से मुक्त होता है, उन कर्मसंयोग के प्रति हिंसादि और कर्मवियोग के प्रति अहिंसादि कारण हैं । इत्यादि जिनप्रवचनोक्त विविध तत्त्ववस्तु लेना। ___ इन कर्म, फल इत्यादि तत्त्वों की सम्यक् प्रतीति स्वरूप, और चित्तकलुषितता का निवारक चित्त धर्म यहां 'श्रद्धा' करके विवक्षित है। यह एक मणि-सा है। जिस प्रकार पानी को स्वच्छ करनेवाला मणिरत्न तालाब में डाला जाए तो वह पङ्क आदि कलुषितताओं को हटाकर स्वच्छता का संपादन कर देता है, इस प्रकार श्रद्धामणि भी चित्त सरोवर में उत्पन्न होकर तत्त्वसम्बन्धी संशय, भ्रम, चाञ्चल्य, अतत्त्वश्रद्धा इत्यादि चित्त की समस्त कलुषितताओं को हट करके भगवान अरिहंतदेव से उपदिष्ट तत्त्व-मार्ग को चित्त में भावित करता है, या ऐसे मार्ग में चित्त को सम्यग् रूप से भावित (वासित) कर देता है; जैसे कि कस्तूरी डिब्बे में रहे हुए कपड़े को वासित करती है। 'मेहाए' का अर्थ : रोगी के उत्तम औषध के प्रति आदर का दृष्टान्त: इस प्रकार मेहा-मेधा से कायोत्सर्ग करता हूँ, किन्तु जडता-अज्ञानता से नहीं। 'मेधा' यह शास्त्र वचन ग्रहण करने में निपुण ऐसा चित्तधर्म याने बुद्धिधर्म है। वह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रगट होता है। कायोत्सर्ग में जो अनुप्रेक्षा करनी है उसमें पूर्वोक्त श्रद्धा के अलावा यह मेधा भी आवश्यक है। चित्त में तत्त्वश्रद्धा जागृत हुई, अब उन तत्त्वों के प्रतिपादक सत्शास्त्र के विषय में महान उपादेयभाव उत्पन्न होता है; यही शास्त्र मुझे आदेय है, ग्राह्य है, वैसा अत्यधिक आकर्षण होता है। यह भी उपादेयभाव शुष्क नहीं किन्तु सम्यक् शास्त्र में २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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