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________________ (ल०-'धीइए' : चिन्तामणिप्राप्त्युपमा:-) एवं च धृत्या, न रागाद्याकुलतया । धृतिर्मन:प्रणिधानं, विशिष्टा प्रीतिः । इयमप्यत्र मोहनीयकर्मक्षयोपशमादिसंभूता, रहिता दैन्यौत्सुक्याभ्यां, धीरगम्भीराशयरूपा, अवन्ध्यकल्याणनिबन्धनवस्त्वाप्त्युपमया;-यथा दौर्गत्योपहतस्य चिन्तामण्याद्यवाप्तौ विज्ञाततद्गुणस्य 'गतमिदानी दौर्गत्यमिति विदित (प्र०... विगत) तद्विघातभावं भवति धृतिः । एवं जिनधर्मचिन्तारत्नप्राप्तावपि विदिततन्माहात्म्यस्य 'क इदानीं संसार' इति तद्दुःखचिन्तारहिता सञ्जायत एवेयम्, उत्तमालम्बनत्वादिति ।। प्रवृत्ति करने की प्रधानता वाला होता है। इसीलिए वह पापश्रुत के यानी मिथ्याशास्त्र एवं उनके वचनों के प्रति अवज्ञा, अग्राह्यभाव कराता है। एवं इससे सत् शास्त्र में प्रवृत्ति के पूर्व गुरुविनय-बहुमान आदि शास्त्रग्रहण-विधि की प्रियता रहती है। सत्शास्त्राध्ययन संबन्धी इस प्रकार का निपण उपादेय-परिणाम यह मेधा है। रोगी परुष को औषध प्राप्ति में होते हुए उपादेयभाव के दृष्टान्त से यह सुज्ञेय है। जिस प्रकार विचारक रोगी पुरुष को किसी उत्तम औषध की प्राप्ति होती है। तब वह औषधि विशिष्ट फल प्राप्ति के लिए योग्य लगने से, अन्य निष्फल या अनर्थकारी औषधों को छोडकर इस उत्तम औषध में उसे महान उपादेयभाव यानी 'यही ग्राह्य है' ऐसा अत्यधिक आकर्षण वाला मनोनिर्धार, एवं उसके ग्रहण में प्रयत्न रहता है, ठीक इसी प्रकार मेधावान पुरुष को मेधागुण के सामर्थ्य से सम्यक् शास्त्र के प्रति ही अत्यन्त उपादेयभाव और उसी के अध्ययन में प्रयत्न रहता है, किन्तु अन्यत्र नहीं, क्यों कि वह समझता है कि सम्यक् शास्त्र ही भाव-औषध है, आत्मरोग निवारणार्थ सच्चा औषध है। ‘धीइए' का अर्थ:-चिन्तामणि प्राप्ति का दृष्टान्त : इसी प्रकार कायोत्सर्ग 'धीइए' अर्थात् धृति से करना है किन्तु रागादिदोषों से व्याकुलित होकर नहीं। धृति यह प्रस्तुत में मन का प्रणिधान यानी प्रकृष्ट स्थापन है; यह एक ऐसी विशिष्ट प्रीति है जो कि मन को अन्यत्र आकृष्ट होने नहीं देती। यहां यह प्रीति भी मोहनीयकर्म के क्षयोपशम आदि से प्रादुर्भूत होती है, और दीनता तथा फल के प्रति उत्सुकता से रहित होती है। क्रिया में विशिष्ट प्रीति होने पर कोई उद्वेग-खिन्नता लावे ऐसी दीनता, एवं क्रिया तुरन्त समाप्त कर फल पा लें ऐसी उत्सुकता नहीं होती है यह धृति धीर और गम्भीर आशय स्वरूप होती है। पूर्वोक्त जो श्रद्धा मेधा प्राप्त हुई इनसे जो एक दृढ गहरा शुभाशय उत्पन्न होता है, - यह धृति है, और वह अवश्य निश्चित सुख लाने वाले कल्याण में कारणीभूत चिंतामणि आदि वस्तु प्राप्ति के दृष्टान्त से समझी जा सकती है। जैसे कि, - किसी दरिद्रता से पीडित पुरुष को कदाचित् कहीं से चिन्तामणि रत्न प्राप्त हो जाए, और उसकी महिमा उसे अवगत हो, तब उस चिन्तामणि से दरिद्रता का निमित्त नाश जानकर 'अब तो दरिद्रता गई।" ऐसी धृति उत्पन्न होती है। इस प्रकार जिनधर्म स्वरूप चिन्तामणी भी प्राप्त होने पर उसका महात्म्य ख्याल में रहते हुए, 'अब दुःखरूप संसार कैसा?' ऐसी संसारदुःख की चिन्ता से विनिर्मुक्त विशिष्ट धृति उत्पन्न होती ही है। क्योंकि वह तो लौकिक चिन्तामणि की अपेक्षा उत्तम आलम्बन प्राप्त हुआ है। 'धारणाए' का अर्थ मोतीमाला के पिरोने का दृष्टान्त: इसी प्रकार धारणा से कायोत्सर्ग करना है, नहीं कि चित्त शून्य रख कर । धारणा प्रस्तुत वस्तु की अविस्मृति को कहते हैं; विस्मृति न हो जाए किन्तु स्मृति हो इस प्रकार वस्तु को पकड रखना यह धारणा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम द्वारा निष्पन्न होती है। उसके अविच्युति, स्मृति और वासना यों तीन प्रकार हैं। २७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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