SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-'सद्धाए'... जलशोधकमणिदृष्टान्तः-) अयं च कायोत्सर्गः क्रियमाणोऽपि श्रद्धादिविकलस्य नाभिलषितार्थप्रसाधनायालमित्यत आह 'सद्धाए मेहाए धीइए धारणाए अणुप्पेहाए वड्डमाणीए ठामि काउस्सग्गं'ति । श्रद्धया हेतुभूतया, न बलाभियोगादिना । श्रद्धा निजोऽभिलाषः मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिजन्यश्चेतसः प्रसाद इत्यर्थः अयञ्च जीवादितत्त्वार्थानुसारी समारोपविघातकृत् कर्मफलसम्बन्धास्तित्वादिसंप्रत्ययाकारः चित्तकालुष्यापनायी धर्मः । यथोदकप्रसादको मणिः सरसि प्रक्षिप्तः पङ्कादिकालुष्यमपनीयाच्छतामापादयति, एवं श्रद्धामणिरपि चित्तसरस्युत्पन्नः (प्र०....पपन्नः) सर्वं चित्तकालुष्यमपनीय भगवदर्हप्रणीतमार्गे (प्र०...मार्ग) सम्यग्भावयतीति । (पं०-) 'श्रद्धा०' । 'समारोपे'त्यादि, 'समारोपविघातकृत्', समारोपो नामासतः स्वभावान्तरस्य मिथ्यात्वमोहोदयात्तथ्ये वस्तुन्यध्यारोपणं काचकामलाद्युपघाताद् द्विचन्द्रादिविज्ञानेष्विवेति, तद्विघातकृत् = तद्विनाशकारी । 'कर्मफलसम्बन्धास्तित्वादिसंप्रत्ययाकार' इति, कर्म शुभाशुभलक्षणं, फलं च तत्कार्यं तथाविधमेव, तयोः संबन्धः आनन्तर्येण कार्यकारणभावलक्षणो वास्तवः संयोगो, न तु सुगतसुतपरिकल्पितसन्तानव्यवहाराश्रय इवोपचरितो, यथोक्तं तैः 'यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा।' तस्य अस्तित्वं = सद्भावः, 'आदि' शब्दाद् 'आत्मास्ति, स परिणामी, बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण । मुक्तश्च तद्वियोगाद्, हिंसाहिंसादि तद्धेतुः ।।' इत्यादिचित्रप्रावचिनकवस्तुग्रहः । तस्य सम्प्रत्ययः सम्यश्रद्धानयुता प्रतीतिः स आकारः = स्वभावो यस्य स तथा। - ___'वंदणवत्तियाए' –इत्यादि छ: पदो द्वारा कथित-वंदनपूजनादि निमित्तों से भी किया जाता यह कायोत्सर्ग अगर श्रद्धादि से रहित हो तब अभिलषित वस्तु को सिद्ध करने में समर्थ नहीं होता है, इस लिए इसी सूत्र में अब कहते हैं 'सद्धाए मेहाए धीइए धारणाए अणुप्पेहाए वड्डमाणीए ठामि काउस्सग्गं' अर्थात् बढती हुई श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा एवं अनुप्रेक्षा द्वारा मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। इसमें पहले कहना यह हुआ कि कायोत्सर्ग श्रद्धा वश किया जाता है किन्तु किसी बलाभियोगादि यानी बलात्कार, गतानुगतिकता, पौद्गलिक आशंसा, कपट, इत्यादि वश नहीं। यह श्रद्धा स्वीय अभिलाषा रूप है। तात्पर्य कि मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के क्षयोपशम एवं परमात्मा के प्रति प्रशस्त भक्तिरागादि से उत्पन्न होता हुआ चित्तप्रसाद यह श्रद्धा है। वह एक ऐसा चित्तधर्म है जो कि चित्त के कालुष्य को नष्ट कर देता है, क्यों कि वह जीव अजीव आदि तत्त्वभूत पदार्थ का ही अनुसरण करता है अर्थात् उन जीवादि तत्त्व की ज्ञेय-हेय-उपादेयता के अनुरूप आत्मपरिणति से संपन्न होता है, और वह समारोप का नाश कर देता है। यह समारोप, जैसे मोतिया बिन्द एवं कामलरोगादि से जनित दृष्टि-उपघातवश एक ही चन्द्र में द्विचन्द्र का मिथ्याज्ञान एवं शुक्ल शंख में पीतपन का भ्रान्तज्ञान, इत्यादि स्वरूप होता है इस तरह मिथ्यात्व मोहोदय वश जीवादि वस्तु में असत् अन्यान्य स्वभाव के आरोपित ज्ञान स्वरुप होता है । ऐसा समारोप चित्तप्रसाद से नष्ट हो जाता है। यह चित्तप्रसाद कर्म, तत्फल, तत्संबन्ध का अस्तित्व इत्यादि की सम्यक् श्रद्धा स्वरूप होता है। यहां 'कर्म' से शुभाशुभ पुण्य-पाप, एवं 'तत्फल' से उनके विपाकाधीन शुभाशुभ कार्य, और 'तत्संबन्धास्तित्व' से कर्म और फल के बीच एवं उनका आत्मा के साथ वास्तविक साक्षात् कार्यकारणभावसंबन्ध का सद्भाव विवक्षित है। २७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy