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________________ (ल०-प्राप्तबोधिलाभार्थं कथं कायोत्सर्गः ?-) आह, –'साधुश्रावकयोर्बोधिलाभोऽस्त्येव; कथं तत्प्रत्ययं; सिद्धस्यासाध्यत्वात् ? एवं तन्निमित्तो निरुपसगर्गोऽपि तथाऽनभिलषणीय एव; इति किमर्थमनयोरुपन्यास इति ? उच्यते क्लिष्टकम्र्मोदयवशेन बोधिलाभस्य प्रतिपातसम्भवाज्जन्मान्तरेऽपि तदर्थित्वसिद्धेः; निरुपसर्गस्यापि तदायत्तत्वात् । सम्भवत्येवं भावातिशयेन रक्षणमित्येतदर्थमनयोरुपन्यासः । न चाप्राप्तघ्राप्तावेवेह प्रार्थना, प्राप्तभ्रष्टस्यापि प्रयत्नप्राप्तत्वात् क्षायिकसम्यग्दृष्ट्यपेक्षयाप्यक्षेपफलसाधकबोधिलाभापेक्षया एवमुपन्यासः । 'बोहिलाभवत्तियाए' अर्थात् बोधिलाभ के निमित्त । जिनप्रणीतधर्म-प्राप्ति को बोधिलाभ कहा जाता है। यह धर्मप्राप्ति, धर्म को आचरण रूप से प्राप्त करने में कदाचित् अशक्त होने पर भी, हृदय में स्पर्शना रूप जिनोक्तधर्मप्राप्ति हो सकती है। अब बोधिलाभ ही किस लिए ? उत्तर है कि 'निरुवसग्गवत्तियाए' अर्थात् निरुपसर्ग हेतु । निरुपसर्ग नाम है मोक्ष का, क्यों कि वहा जन्म-मरण-रोग-शोकादि कोई उपद्रव (उपसर्ग) है ही नहीं। प्राप्त बोधिलाभ हेतु भी कायोत्सर्ग क्यों ? : प्र० - साधु और श्रावक के पास बोधिलाभ तो है ही फिर इसके निमित्त वे कायोत्सर्ग क्यों करें? कारण, सिद्ध वस्तु अब साधने योग्य नहीं होती है। सिद्ध बोधिलाभ को अब कायोत्सर्ग से क्या? साधना एवं बोधिलाभ से ही अवश्य होनेवाला मोक्ष (निरुपसर्ग) भी कोई नया अभिलषणीय नहीं है, तब फिर इसके लिए भी कायोत्सर्ग करना अनावश्यक है । अतः प्रश्न है कि बोहिलाभवत्तियाए निरुवसग्गवत्तियाए इन दो पदों का उपन्यास क्यों किया गया? उ०-- क्लिष्ट कर्म मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय वश संभव है कि प्राप्त हुए भी बोधिलाभ का नाश हो जाए । तब तो वह बोधिलाभ भावी काल के लिए असिद्ध हुआ; एवं जन्मान्तर के लिए भी इसकी अभिलाषा रहती है इससे सूचित होता है कि वहां भी यह सिद्ध नहीं है। इसलिए कायोत्सर्ग द्वारा अत्यन्त भाव से, बोधिलाभ का रक्षण होना संभवित है। एवं निरुपसर्ग मोक्ष तो क्षायिक अविनाशी बोधिलाभ के अधीन होने से अब तक सिद्ध नहीं है, अत: ऐसे असिद्ध बोधिलाभ एवं निरुपसर्ग के निमित्त कायोत्सर्ग करने के लिए 'बोहिलाभवत्तियाए, निरुवसग्गवत्तियाए' इन दोनों का उपन्यास युक्तियुक्त है। और भी यह बात है कि यहां प्रार्थना केवल अप्राप्त की नयी प्राप्ति के लिए ही की जाती है ऐसा नहीं, पुनः प्राप्ति के लिए भी वह कर्तव्य है; क्योंकि वस्तु प्राप्त होने के बाद कदाचित् भ्रष्ट हो जाए, तब ऐसे प्रार्थनादि प्रयत्न से वह पुनः साध्य होती है। प्र०-क्षायिक सम्यग्दृष्टि कि जिसे मिथ्यात्वादि दर्शन मोहनीय निर्मूल क्षीण हो जाने से अविनाशी सम्यग्दर्शन यानी बोधिलाभ प्राप्त ही है, उसके लिए कायोत्सर्ग-निमित्त-सूत्र में 'बोहिलाभवत्तियाए' पदोपन्यास का क्या उपयोग? उ०-उपयोग यही कि क्षायिक-सम्यग्दृष्टि आत्मा को भी अब तक बिना विलम्ब फल को सिद्ध करनेवाला बोधिलाभ प्राप्त नहीं है, उसे प्राप्त करने की अपेक्षा से 'बोहिलाभवत्तियाए' पद का उपन्यास है। 'सद्धाए' का अर्थ है : जलशोधक मणिका दृष्टान्त : २७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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