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________________ (ल०- आज्ञाशुद्धैः प्रवृत्तिः सफला)न चैतदप्यनीदृशमिष्टफलसिद्धये, किन्त्वाज्ञामृतयुक्तमेव, स्थाने विधिप्रवृत्तेरिति सम्यगालोचनीयमेतत् । तदेवमनयोः साधुश्रावकावेव विषय इत्यलं प्रसङ्गेन । (पं०-) दृष्टान्तशुद्धयर्थमाह 'न च' = नैव, 'एतदपि' = कूपोदाहरणमपि, 'अनीदृशम्' = उदाहरणीयबहुगुणद्रव्यस्तवविसदृशं यथाकथञ्चित् (प्र०.....यथाकिञ्चित्) खननप्रवृत्त्या, 'इष्टफलसिद्धये', इष्टफलम् आरम्भिणां द्रव्यस्तवस्य बहुगुणत्वज्ञापनं, तत्सिद्धये भवतीति, दार्खान्तिकेन वैधात् । यथा तु स्यात् तथाह 'किन्त्वाज्ञामृतयुक्तमेव', आजैवामृतं परमस्वास्थ्यकारित्वादाज्ञामृतं, तद्युक्तमेव = तत्संबद्धमेव; तथाहि,-महत्यां पिपासाद्यापदि कूपखननात्सुखतरान्योपायेन विमलजलासंभवे निश्चितस्वादुशीतस्वच्छजलायां भूमौ (प्र०...इलायां) अन्योपायपरिहारेण (प्र०...विरहेण) कूपखननमुचितं, तस्यैव तदानीं बहुगुणत्वाद्; इत्थमेव च खातशास्त्रकाराज्ञा । कुत एतदित्याह 'स्थाने' द्रव्यस्तवादौ कूपखननादिके च उपकारिणि, 'विधिप्रवृत्तेः औचित्यप्रवृत्तेः, अन्यथा ततोऽप्यपायभावात् । (ल०-सम्माण० बोहिलाभ० निरुवसग्ग० पदार्थः-) तथा 'सम्माणवत्तियाए'त्ति सन्मानप्रत्ययं सन्माननिमित्तम् । स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणं सन्मानः; तथा मानसः प्रीतिविशेष इत्यन्ये । अथ वन्दनपूजनसत्कारसन्माना एव किंनिमित्तमिति ? अत आह 'बोहिलाभवत्तियाए' बोधिलाभप्रत्ययं बोधिलाभनिमित्तम् । जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिबोधिलाभोऽभिधीयते । अथ बोधिलाभ एव (प्र०.... भोऽपि) किंनिमित्तमिति ? अत आह 'निरुवसग्गवत्तियाए' - निरुपसर्गप्रत्ययं निरुपसर्गनिमित्तम् । निरुपसग्र्गो मोक्षः, जन्मायुपसर्गाभावेन । द्रव्यस्तव की अपेक्षा विलक्षण यानी आज्ञानिरपेक्ष हुआ। तब प्रश्न है कि किस प्रकार इष्टफल-साधक हो ? उत्तर यह है कि आज्ञारूप अमृत से संबद्ध ही । शास्त्राज्ञा तो परम स्वास्थ्यकारी होने से एक प्रकार का अमृत है। यह इस प्रकार-कोई बड़ी प्यासादि आपत्ति खड़ी हुई हो और कूपखनन की अपेक्षा दूसरे अधिक सरल उपाय द्वारा निर्मल जल प्राप्त करना असंभवित हो तब यही उचित होगा कि अन्य उपाय को छोडकर निश्चित स्वादिष्ट शीतल स्वच्छ जल वाली भूमि को खोदा जाय। क्यों कि उस समय खातशास्त्रानुसार वही खनन बहु गुणकारी होता है। खातशास्त्र के रचयिताओं की यही आज्ञा है । ऐसे शास्त्रानुसारी प्रयत्न से इष्ट फल होने में कारण यह है कि प्रयत्न उपकारक द्रव्यस्तव एवं कूपखननादि रूप योग्य स्थान में उचित रूप से हुआ है। अगर अनुचित प्रवृत्ति की होती तो अनर्थ होता। इस प्रकार पूजा-सत्कार निमित्त कायोत्सर्ग के सूत्र के विषय साधु और श्रावक दोनों है। इतनी चर्चा यहां पर्याप्त है। सम्माण ० बोहिलाभ निरुवसग्गवत्तियाए का अर्थ : 'सम्माणवत्तियाए' का अर्थ है सन्मान निमित्त; अर्थात् चैत्य के सन्मान से जो कर्मक्षय का लाभ होता है, उस लाभ के हेतु मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। यहां सन्मान, वाचिक स्तुति आदि गुणों के उन्नतिकरण अर्थात् प्रशंसन को कहते हैं। अन्य आचार्यों के मत से सन्मान यह मानसिक प्रीतिविशेष स्वरूप है। अर्थात् भगवान के प्रति ऐसी उछलती प्रीति कि जो अप्राप्त धर्मलाभ को प्राप्त करा दे और प्राप्त को अधिकाधिक बढा दे, एवं निजात्मा को उपर उपर के गुणस्थानक में चढा दे। अब ये वन्दन-पूजन-सत्कार-सन्मान किसके लिए है ? तो कहते हैं कि २७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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