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________________ (पं० ) इह चैव साधनप्रयोगो, 'गुणकरम् अधिकारिणः किञ्चित्सदोषमपि पूजादि, विशिष्टशुभभावहेतुत्वात्, यद् यद् विशिष्टशुभभावहेतुभूतं तद् गुणकरं दृष्टं, यथा कूपखननं; विशिष्टशुभभावहेतुश्च यतनया पूजादि, ततो गुणकरमिति' । कूपखननपक्षे शुभभावः तृष्णादिव्युदासेनानन्दाद्यवाप्तिरिति । इदमुक्तं भवति, यथा कूपखननं श्रमतृष्णाकर्दमोपलेपादिदोषदुष्टमपि जलोत्पत्तावनन्तरोक्तदोषानपोह्य स्वोपकाराय परोपकाराय वा यथाकालं (प्र०...चालं, प्र०... चाकालं) भवति, एवं पूजादिकमप्यारम्भदोषमपोह्य शुभाध्यवसायोत्पादनेना शुभकर्म्मनिर्ज्जरणपुण्यबन्धकारणं भवतीति । उ०- औचित्य प्रवृत्ति रूप होने पर भी उनमें शुभपरिणाम अल्प प्रमाण में है, जो कि भावस्तव की कक्षामें उपयुक्त शुभ परिणाम की मात्रा वाला नहीं है। इसलिए वह भावस्तव नहीं माना जा सकता। ऐसा मत कहिए कि 'तब फिर अल्पभाव होने की वजह से वह गृहस्थ के लिए अकिञ्चित्कर होगा अर्थात् कुछ लाभप्रद नहीं ।' क्योंकि कूप के दृष्टान्त से यह द्रव्यस्तव अल्प भावशाली होने के बावजूद भी गृहस्थ के लिए उपकारी होता है । यहां अनुमान - प्रयोग इस प्रकार का होगा, 'पूजादि के अधिकारी को कुछ सदोष भी पूजादि उपकारक है, क्यों कि वह विशिष्ट शुभभाव का कारण है; व्याप्तिः- जो जो विशिष्ट शुभभाव का हेतुभूत है, वह वह उपकारक दिखाई पडता है; उदाहरणार्थ जैसा कूप का खनन ( खूदाई) ।' जतना (सावधानी) से किया गया पूजादिद्रव्यस्तव विशिष्ट शुभभाव का कारण होता है, इसलिए वह उपकारक है। यहां कूपखनन के पक्ष में शुभ भाव और कोई नहीं किन्तु पिपासा आदि का उपशम करने पूर्वक होने वाली आनन्दादि की प्राप्ति ही शुभ भाव रूप से ग्राह्य है 1 कूप का दृष्टान्त इस प्रकार है:- किसी प्रवासी को रास्ते में बहुत प्यास लगी । वह एक सूकी हुई नदी के तट में छोटी सी कूई खोदता है । यद्यपि इससे प्रवास के श्रम, प्यास एवं धूलि - मलिनतादि दोष और भी बढते हैं, फिर भी पानी मिल जाने पर उसके उपयोग से वे समूचे दोष दूर होते हैं । फलतः खुदा हुआ कूप हंमेशा या कालानुसार स्वोपकार एवं परोपकार के लिए समर्थ होता है। इस प्रकार पूजा सत्कार भी, आरम्भ दोष से दूषित होने पर भी, शुभ अध्यवसाय को उत्पन्न करने द्वारा पाप कर्मों के क्षय और पुण्य के उपार्जन में कारण बनतें हैं । यहां देखिए कि श्रम, प्यास और मल को दूर करने में प्रवासी के लिये कूप खनन ही एक उपाय है। यह भी पहले श्रमाद में वृद्धि करता है, लेकिन बाद में वह प्राप्त जल के द्वारा सभी श्रम वगैरह को शान्त कर देता है । इसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी कुछ आरम्भदोष से युक्त भी जिनपूजा - सत्कार ही मुख्य रूप से पापनाश एवं पुण्यवृद्धि का उपाय हैं, यावत् आगे जा कर सर्व हिंसारम्भ और मूर्च्छा के त्यागपूर्वक साधु जीवन प्राप्त कराने में समर्थ है। आज्ञायुक्त प्रवृत्ति ही सफल : दृष्टान्त शुद्धि के लिए कहते है कि कूप का दृष्टान्त भी ज्यों त्यों खनन करने द्वारा इष्ट साधक नहीं है, अर्थात् दान्तिक बहुगुणसंपन्न द्रव्यस्तव से विलक्षण यानी ज्यों त्यों किया गया कूपखनन इष्ट फल देने में समर्थ नहीं हो सकता। यह इस प्रकार - श्रोता आरम्भी गृहस्थ को ऐसे दृष्टान्त देने द्वारा उसे द्रव्यस्तव की बहुगुणता का ज्ञापन करना अभिप्रेत है, वह इष्ट फल संपन्न नहीं हो सकता अगर जैसे तैसे किया जाता कूपखनन का दृष्टान्त द्रव्यस्तव की बहुगणता की पुष्टि में दिया जाए। क्योंकि वैसा दृष्टान्त तो आज्ञाशुद्ध किये जा रहे दार्ष्यन्तिक Jain Education International २६९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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