SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०- द्रव्यस्तवो भावस्तवाङ्गम्:-) तथाहि, -द्रव्यस्तव एवैतौ, स च भावस्तवाङ्गमिष्टः, तदन्यस्याप्रधानत्वात्, तस्याभव्येष्वपि भावात् । अतः आज्ञयाऽसदारम्भनिवृत्तिरूप एवायं स्यात् । औचित्यप्रवृत्तिरूपत्वेऽप्यल्पभावत्वाद् द्रव्यस्तवः । गुणाय चायं कूपोदाहरणेन । (पं०-) औचित्यमेव पुनर्विशेषतो भावयन्नाह, 'तथाहि, द्रव्यस्तवः', 'एतौ' = पूजासत्कारी, ततः किमित्याह ‘स च' = द्रव्यस्तवः (च), 'भावस्तवाङ्ग' = शुद्धसाधुभावनिबन्धनम्, 'इष्टः' = अभिमतः । कुत इत्याह 'तदन्यस्य' भावस्तवानङ्गस्य, 'अप्रधानत्वाद्' अनादरणीयत्वात्, कुत इत्याह 'तस्य' अप्रधानस्य, 'अभव्येष्वपि' किं पुनरितरेषु, 'भावात्' = सत्त्वात्। न च ततः काचित्प्रकृतसिद्धिः । अतः' = अन्यस्याप्राधान्याद्धेतोः, 'आज्ञया' = आप्तोपदेशेन, 'असदारम्भनिवृत्तिरूप एव' = असदारम्भाद् -उक्तरूपात् तस्य वा, या निवृत्तिः = उपरमः, तद्रूप एव, न पुनरन्यो बहुलोकप्रसिद्धः, अयं' = शास्त्रविहितो द्रव्यस्तवः, 'स्याद्' भवेत् । आह, 'कथमसौ न भावस्तवः ? औचित्यप्रवृत्तिरूपत्वात् साधुधर्मवद्' इत्याशड्क्याह 'औचित्यप्रवृत्तिरू पत्वेऽपि' = श्रावकावस्थायोग्यव्यापारस्वभावतायामपि, किं पुनस्तदभावे अल्पभावत्वात्' = तुच्छशुभपरिणामत्वात्, 'द्रव्यस्तवः = पूजासत्कारौ । एवं तर्हि अल्पभावत्वादेवाकिञ्चित्करोऽयं गृहिणामित्याशक्याह 'गुणाय च' = उपकाराय च, 'अयं' = द्रव्यस्तवः, कथमित्याह 'कूपोदाहरणेन' = अवटज्ञातेन । यह है कि जिनपूजादि-कालमें असद्-आरम्भ बन्द हो जाते हैं; असद् इसलिए कि वे इन्द्रियों के वैषयिक सुख निमित्त किये जाते हैं। उनकी निवृत्ति या उनसे आत्मा की निवृत्ति जिनपूजा सत्कार के काल में ठीक मिल जाती है। शायद आप कहेंगे कि इस निवृत्ति का संपादन तो किसी दूसरे उपाय से भी हो सकता है, लेकिन यह ख्याल में रखिए कि आज्ञामृत से युक्त पूजासत्कार को छोडकर असद् आरम्भ की निवृत्ति गृहस्थ के लिए और किसी से नहीं हो सकती है। यदि ऐसा न माना जाय तो अतिप्रसङ्ग होगा अर्थात् पूजासत्कार के सिवा और किसी प्रकार से असद् आरम्भ की निवृत्ति मानने पर जूआ खेलना, झूले झूलना, इत्यादि से भी आरम्भनिवृत्ति हुई मानी जाएगी। किन्तु ऐसा तो है नहीं, अतः मानना आवश्यक है कि जिनपूजासत्कार में प्रवृत्त रहने से उतने काल तक असद् आरम्भ से बचा जाता है। पूजा-सत्कार में औचित्य किस प्रकार है, यह विशेष रूप से बतलाते हुए कहते हैं कि पूजा सत्कार द्रव्यस्तव है और द्रव्यस्तव भावस्तव का कारण है। भावस्तव का मतलब शुद्ध साधुभाव है, क्यों कि भावरूप से परमात्मस्तव परमात्मा की आज्ञा का पालन ही है, और वह विशुद्ध साधुजीवन में ही सर्वथा अखंण्डित रूप में किया जाता है। द्रव्यस्तव उसका कारण होने से ही कर्तव्यरूप में इष्ट है। क्योंकि जो भावस्तव का कारण नहीं वह अप्रधान यानी अनादरणीय होता है। दूसरों में क्या मोक्ष के लिए अयोग्य ऐसी अभव्य आत्मा में भी अप्रधान द्रव्यस्तव होता है, लेकिन वह भावस्तव का कारण न होने से उससे कुछ भी अधिकृत सिद्धि होती नहीं है। इस प्रकार अन्य उपाय अप्रधान होने से आप्त पुरुषों के उपदेशानुसार की जाती असद् आरम्भ से निवृत्ति या असद् आरम्भो की निवृत्ति स्वरूप ही द्रव्यस्तव प्रधान द्रव्यस्तव है, शास्त्रविहित द्रव्यस्तव है, किन्तु अन्य बहुलोक - प्रसिद्ध द्रव्यस्तव नहीं। प्र०- जब शास्त्रविहीत पूजासत्कार साधुधर्म की तरह औचित्य प्रवृत्तिरूप है श्रावकावस्था के योग्य प्रवृत्तिरूप है, एवं आत्मिक शुभपरिणाम वाले भी हैं, तब वे भावस्तव क्यों नहीं ? २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy