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________________ ( ल० वन्दना शुभचित्तलाभार्था ) एतानि च तुल्यान्येव प्रायशः, अन्यथा योगव्याघातः । तदज्ञस्य तदपरश्रवणम्, एवमेव शुभचित्तलाभ:, तद् व्याघातोऽन्यथेति योगाचार्याः । योगसिद्धिरेव अत्र ज्ञापकम् द्विविधमुक्तं शब्दोक्तमर्थोक्तं च । तदेतदर्थोक्तम्, वर्त्तते, शुभचित्तलाभार्थत्वाद् वन्दनाया इति । (पं० -) द्विविधमित्यादि, 'द्विविधं' = द्विप्रकारम्, 'उक्तं ' = प्रवचनार्थादेशः । तदेव व्यनक्ति, 'शब्दोक्तं' सूत्रादिष्टमेव, 'अर्थोक्तं' = सूत्रार्थयुक्तिसामर्थ्यगतम् । इति श्री मुनिचन्द्रसूरिभि: रचितललितविस्तरापञ्जिकायां प्रणिपातदंडकः समाप्तः । = - काव्यालङ्कारों से सुशोभित हो; (४) 'उच्च उत्कृष्ट गम्भीर शब्दों से गुम्फित' होने आवश्यक हैं, जिनमें भगवान को कोई अशोभनीय अलङ्कार - उपमादि न लगाया हो; (५) दूसरों को सुनकर भगवत्प्रशंसा - धर्मप्रशंसा रूप धर्मबीज आदि की प्राप्ति हो वैसे सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रदेवप्रणीत शासन के प्रभावनाकारी; और (६) रागद्वेष स्वरूप आभ्यन्तर विष का नाश करने के लिए श्रेष्ठ मन्त्र समान महास्तोत्र होने चाहिए । > ऐसे महास्तोत्रों को इस ढंग से पढ़ना कि - (१) स्तोत्रोच्चारण रूप योग के अलावा अन्य कोई भी योग, जैसे कि इधर-उधर देखना, कुछ भी प्रवृत्ति करना, इत्यादि से प्रस्तुत योग में बाधा न पहुँचे, वरन् इस अकेले योग में चित्तस्थापन अधिकतर दृढ होता रहने से अधिकाधिक विशुद्ध योगवृद्धि संपादित हो; यह भी भावोल्लास की उत्तरोत्तर वृद्धि करने के लिए आवश्यक है । अतः योगवृद्धि द्वारा शुभ भाव, शुभ अध्यवसाय, संवेगादि उत्तरोत्तर बढते रहने का पूरा लक्ष एवं प्रयत्न रहे; (२) स्तोत्रोच्चारण भी सिर्फ, शुष्क हृदय से, रट जाने के स्वरूप का नहीं किन्तु भावपूर्ण हो, अपूर्व अपूर्व हर्ष रूप संभ्रम, रोमाञ्चोत्थानादि से संपन्न हो, (३) आवाज भी शुद्ध, स्पष्ट, एवं गम्भीर यानी नाभि में से उठती हो, हृदय और कलेजे के कम्पन-संवेदन से युक्त हो; तथा (४) वहां के रहे हुए अन्य बोलने वाले पुरुषों की ऊंची आवाज का अभिभव न करे अर्थात् उसको दबा न दे, किन्तु उसके भीतर समा जाए, अन्तः प्रविष्ट हो जाए, वैसी ध्वनि से स्तोत्रोच्चारण करना । यह इसलिए आवश्यक है उसकी उपेक्षा से या अन्यों के ध्वनि को दबा देने की वृत्ति से चित्त कलुषित होता है जो कि भावशुद्धि - भाववृद्धि में बाधक है। • स्तोत्र पढ़ते समय कैसे रहना ? (१) अङ्ग बिलकुल शान्त स्वस्थ किया हुआ चाहिए, किन्तु आकुलव्याकुल नहीं, अन्यथा स्तोत्रपठन में एकाग्रता एवं भावोल्लास नहीं बढेगा । (२) स्तोत्रपठन में इतनी तन्मयता होनी चाहिए कि डांस - मच्छर-मक्खी इत्यादि का दंश लक्ष में न आवे; इतनी शरीर के प्रति निरपेक्षता रहनी चाहिए । (३) एवं पूरा स्तोत्रपठन योगमुद्रा से यानी अन्योन्य अन्तरित अंगुली - अग्रभाग युक्त अंजली जोडकर, ओर पेट पर हाथों को लगा कर, करना चाहिए। इसमें परमात्मा के प्रति विनयभाव, एकाग्रता, आसनसिद्धि, प्रार्थना - भाव, इत्यादि का पालन एवं वर्धन होता है । अनेक स्तोत्रों में अविरोध Jain Education International : प्र० - अन्यान्य अनेक स्तोत्र पढने में क्या वन्दना - योग में व्याघात नहीं होगा ? उ० नहीं, ये सभी भिन्न भिन्न स्तोत्र प्राय: समान होते हैं, क्योंकि शब्दभेद होने पर भी वे सभी परमात्मा की गुण-स्तवना के एक ही भाव वाले होते हैं। अगर औसा न हो, तो योग का व्याघात होना संभावित है, क्योंकि भगवद्गुण-स्तवना से भिन्न प्रकार का भाव आ जाने से वंदनायोग में स्खलना होगी । २५९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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