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(ल० - चैत्यवन्दनोपहासखण्डनम् - ) एवं च सति तन्न किञ्चिद् यदुच्यते परैरुपहासबुद्ध्या प्रस्तुतस्यासारतापादनाय; तद्यथा - 'अलमनेन क्षपणकवन्दनाकोलाहलकल्पेन अभाविताभिधानेन'; उक्तवदभाविताभिधानायोगात्, स्थानादिगर्भतया भावसारत्वात्, तदपरस्यागमबाह्यत्वात्, पुरुष प्रवृत्त्या तु तद्बाधायोगात्, अन्यथातिप्रसङ्गादिति न किञ्चिदेव ।
स्तोत्रश्रवण भी कार्यसाधक है :प्र० - जिसे स्तोत्र का बोध न हो, वह किस प्रकार वन्दना का लाभ उठा सकता है ?
उ० - स्तोत्र से अनपिज्ञ पुरुष भी अन्य तज्ज्ञ पुरुष द्वारा पढे जा रहे स्तोत्रों का श्रवण करे। इयां भी स्वयं स्तोत्रपठन के मुताबिक हो शुभ चित्त याने प्रशस्त भावोल्लास का लाभ होता है। जो कि वन्दना के रूप में इष्ट है। अगर श्रवण भी न किया जाए तो वन्दन-योग का व्याघात होगा ऐसा योगाचार्य कहते हैं। इसलिए स्तोत्रश्रवण से भी वन्दनयोग पूर्ण करना चाहिए । वह सफल होता है इसमें प्रमाण योगसिद्धि है। प्रमाण दो प्रकार के होते हैं शब्दोक्त याने प्रवचनादेश, अर्थोक्त याने सामर्थ्य लभ्य; एक तो शब्दशः शास्त्र-सूत्र से ज्ञापित होता है और दूसरा अर्थतः निर्दिष्ट होता है, युक्ति-अर्थापत्ति से ज्ञापित किया जाता है। यहां स्तोत्रों का, पठन की तरफ, श्रवण शब्दशः उल्लिखित नहीं है, किन्तु अर्थतः प्राप्त होता है अर्थात् अर्थतः योग सिद्धि से ज्ञापित होता है कि श्रवण भी वन्दनायोग का परक है। फल के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है। वन्दनायोग का फल है शभ चित्त का लाभ, और वह स्वयं पठन की तरह श्रवण से भी प्राप्त होता है। इससे सूचित होता है कि श्रवण द्वारा वन्दन योग अव्याहत बनता है।
चैत्यवन्दन का उपहास अनुचित है :
शुभ चित्त का लाभ चैत्यवन्दन का फल होने से, जो इतरों के द्वारा उपहासबुद्धि से वन्दना के विधान की इस प्रकार असारता प्रतिपादित की जाती है कि 'श्रमणों द्वारा कराते हुए इस वन्दना के कोलाहल याने भावविहीन सूत्र-स्तोत्र-पठन से क्या? वह तो शुष्क नटगीत-सा प्रभावित भावविहीन रटन होने से निष्फल है', यह सोपहास प्रतिपादन गलत है। क्योंकि पहले कहा है इसके अनुसार यह स्तोत्र-पठन कोई भावरहित संभाषण नहीं है। वह तो स्थान, वर्ण, इत्यादि योगों से घटित होने की वजह से भावप्रधान है। जो भावप्रधान नहीं है अर्थात् जिसमें हार्दिक प्रशस्त भाव प्रधान रूप से संमिलित नहीं, वह तो जिनागमबाह्य है, जिनागम से विहित नहीं । इस प्रकार जब आगमविहित एवं भावप्रधान वन्दनादिप्रवृत्ति से मोक्षोपयोगी शुभचित्त फलरूप में प्राप्त होता है तब उसे निष्फल कैसे कह सकते हैं? यदि कहें 'यह तो पुरुष मात्र की प्रवृत्ति अर्थात् ऐच्छिक प्रवृत्ति होने से शुभ भाव होना असंभवित हैं', तब यह भी ठीक नहीं, क्योंकि तब तो वन्दना हो क्यों, और किसी भी प्रवृत्ति में अतिप्रसंग होगा, वहां भी शुभ भाव बाधित-असंभवित होने की आपत्ति खड़ी होगी। अत: आक्षेप तुच्छ हैं, नियुक्तिक है।
प्रणिपातदण्डक - 'नमोत्थुणं' सूत्रव्याख्या समाप्त ।
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