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गुरुध्वनि तत्प्रवेशात्, अगणयन् देशमशकादीन् देहे, योगमुद्रया रागादिविषपरममन्त्ररू पाणि महा - स्तोत्राणि पठति ।
(पं०-) यथे' त्यादि, यथाभव्यं'(पं०... यथाभावं) =यथायोग्यं, 'स्थानवार्थालम्बनगतचित्तः' स्थानं = योगमुद्रादि, 'वर्णाः' = चैत्यवन्दनसूत्रगताः अर्थः = तस्यैवाभिधेयम् (प्र० .... भिधेयः), आलम्बनं = जिनप्रतिमादि, तेषु, गतम् = आरूढं, चित्तं, यस्य स तथा। यो हि यत्स्थानवर्णालम्बनेषु मध्ये मनसावलम्बितुं समर्थः तद्गतचितः सन्नित्यर्थः ।
में से जिनमें मन लगा सकता हो उनमें मन लगा कर महास्तोत्रों को बोलता है। वे स्तोत्र १ सर्वसार, २ यथाभूत, ३ असाधारगुण-संयुत, ४ भगवान के प्रति अशोभनीय अलंकाररहित उत्कृष्ट शब्दवाले, ५ अन्यों को धर्मबीजादि प्राप्त कराने द्वारा जिनप्रवचनोन्नतिकारी, एवं ६ रागादिविष निवारक परममन्त्र रूप होने चाहिये।
• स्तोत्रपठन भी - १ भाववृद्धि के लिए अन्य योग के व्याघात का परिहार करते हुए योगवृद्धि का संपादन करने वाला चाहिए; २ भावप्रधान, ३ विशुद्ध एवं गम्भीर ध्वनियुक्त चाहिए और ४ वहां किसी की ऊंची ध्वनि के अन्तर्गत मिल जाने द्वारा उसका बिलकुल अभिभव न करता हुआ, होना चाहिए।
• स्तोत्र पढ़ते हुए १ अङ्ग अत्यन्त स्वस्थ शान्त रहें, २ शरीर पर डांस-मच्छरादि लगने के प्रति ध्यान न दें, एवं ३ योगमुद्रा रखी जाए, यह आवश्यक है।
यहां तात्पर्य यह है कि, 'नमुत्थुणं' सूत्र को पूर्व कही गई विधि से पढ़ने के बाद पंचाङ्ग प्रणिपात करना, और तदनन्तर आसन पर बैठ कर महास्तोत्रों को पढ़ना । 'बैठ कर' इसलिए कहा कि आगे स्तोत्र-पठन 'सुनिभृत-अङ्ग' अर्थात् अङ्गोपाङ्ग अत्यन्त शान्त-स्वस्थ रखकर करना कहा है, वह अभ्यासी को ऐसी अभ्यस्त स्थिति में सुशक्य है। • स्तोत्र पढ़ते समय चित्त कहां रखना ? यों तो स्थान (योगमुद्रा), वर्ण (स्तोत्राक्षर), अर्थ (स्तोत्र से कथित वस्तु), और मूर्ति आदि आलम्बन, - इन चारों में व्यवस्थित रखना है, किन्तु मन इन चारों का एक साथ आलम्बन करने में असमर्थ है इसलिए कहा गया कि चित्त को यथायोग्य लगाना; मतलब, प्रधान रूप से अर्थ में याने स्तोत्र से वाच्य पदार्थ में उचित लेश्या के साथ तन्मय करना, और साथ साथ चित्त को इतना सावधान रखना कि योगमुद्रा का आसन बिल्कुल स्थिर रहे; वर्ण याने स्तोत्राक्षरों का उच्चारण अत्यन्त शुद्ध और स्पष्ट हो एवं समुचित न्यूनाधिक भार और विराम देकर उच्चारित हो; तथा दृष्टि आलम्बनभूत प्रतिमा या स्थापनाचार्यादि पर अत्यन्त स्थिर रहे। यहां संभव है किसी को स्तोत्र का अर्थ विज्ञात ही न हो, तब मन कहां लगावे? इसलिए टीकाकार महर्षिने स्पष्ट किया कि जो जिस स्थान-वर्ण-अर्थ-आलंबनों में से जिस पर मन को स्थिर रखने के लिए समर्थ है, वहां मन लगावे। इससे महास्तोत्र-पठन के फलस्वरूप योगवृद्धि और भाववृद्धि का लाभ होगा।
• महास्तोत्र कैसे होने चाहिए ? एतदर्थ कहा गया कि महास्तोत्र - (१) 'सर्वसार' याने सभी स्तोत्र में सारभूत, या सर्वथा सारभूत, तात्पर्य एकान्ततः सारभूत शब्द-अर्थवाले होने चाहिए जो कि प्रबल भाववृद्धि के प्रेरक हो; (२) 'यथाभूत' अर्थात् परमात्मा के काल्पनिक नहीं किन्तु यथावस्थित स्वरूप एवं गुणों के प्रतिपादक होने चाहिए, ताकि परमात्मपन की बाधक स्तुति न हो जाए; (३) 'अन्यासाधारणगुणसंगत' - अन्य जीव एवं कल्पित ईश्वरादि में प्राप्त न हो ऐसे असाधारण गुणों के प्रतिपादक हो एवं स्तोत्र रचना असाधारण गुण याने विशिष्ट
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