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________________ = कुत इत्याह 'नीलाद्' रूपविशेषाद् रूपत्वेनाभिन्नजातीयात्, 'पीतादिवासनाप्रसङ्गाद्' = द्रष्टुः पीतरक्तादिजातीयवासनाप्रसङ्गात् । परिहारान्तरापोहायाह' तत्तत्स्वभावत्वात्', तस्य = नीलादेः, तत्स्वभावत्वात् पीतादिवासनानां सजातीयानामप्यजननस्वभावत्वात् नीलादिवासनाया एव जननस्वभावत्वात् । न च स्वभाव: पर्यनुयोगार्हः, 'अग्निर्दहति नाकाशं, कोऽत्रपर्यनुयुज्यते' इति । 'न' = नैव, 'एतत् ' नीलात्पीतादिवासनाजन्मप्रसञ्जनम् 'इति' = एतदपि परिहारान्तरम्, 'असत्' = असुन्दरं, कुत इत्याह 'वाङ्मात्रत्वेन' = वाङ्मात्रमेवेदमिति युक्त्यनुपपत्तेः' । तामेव भावयति 'न हि नीलवासनायाः ' सकाशात्, 'पीतादिवत् ' = पीतरक्तादिवासनावत् 'पित्रादिवासनायाः ' = पित्रादिवासनामपेक्ष्य, 'न भिन्ना' = न पृथक, पुत्रादिवासना, किन्तु भिन्नैवेति । 'इति' = एतद्, 'निरूपणीयं' सूक्ष्माभोगेन । यथा नीलादि दृष्टं सद् नीलादिस्ववासनामेव (प्र० स्वभावामेव) करोति, न भिन्नां पीतादिवासनामपि तथैकस्वभावं वस्तु पित्रादिवासनामेकामेव कुर्यात्, न तद्व्यतिरिक्तामन्यां पुत्रादिवासनामपीति । = = यहां बौद्ध प्रश्नकरते हैं - बौद्धों के स्वभाव मात्र समर्थन का खण्डन यहां बौद्ध बचाव करता है, 'रूप-रसादि जातिओं के अलग अलग विभाग होने से रूप से रसादिवासना होने की आपत्ति नहीं है। रूपजाति से तो रसजाति, स्पर्शजाति वगैरह अत्यन्त भिन्न है, फिर रूप से रस-स्पर्शादि की वासना कैसे उत्पन्न हो सकती है ?" किन्तु यह बचाव अयुक्त है, क्यों कि तब भी एक ही रूपजाति में दृष्टा को नीलरूप से सजातीय पीतरक्तादि रूप की वासना पैदा होना दुर्निर्वार है, क्यों कि वे अत्यन्त भिन्न नहीं किन्तु सजातीय है, और एकस्वभाव वस्तु से भी आप अनेकविध कार्य उत्पन्न होना मानते हैं; तब नील से पीत- रक्तादि-वासना क्यों न हो ? बौद्ध इस आपत्ति के निवारणार्थ कहते हैं कि नीलादि वर्ण सजातीय भी पीतादिवर्ण की वासना को उत्पन्न करने में असमर्थ है, क्यों कि वह नीलादि तो नीलादि वासनाजनन के ही स्वभाववाला है; तब उससे पीतादिवासना कहां से उत्पन्न हो सके ? आप अगर पूछें कि ऐसा ही क्यों ? तब उत्तर यह है कि स्वभाव के बारे में प्रश्न नहीं हो सकता। अग्नि आकाश को क्यों नहीं जलाता है, ऐसा प्रश्न कौन उठाता है ? अग्नि और आकाश का स्वभाव ही ऐसा है कि एक न जला सके, और दूसरा न जल सके। प्रस्तुत में भी नीलादि का ऐसा स्वभाव है कि इससे पीतादिवासना न हो सके।' 1 बौद्धों का यह कथन वचनमात्र है, अर्थशून्य शब्दात्मक है; क्यों कि इसमें कोई युक्ति नहीं बन सकती। यह इस प्रकार - जैसे नीलादिवासना से पीत- रसादिवासना पृथक् नहीं है ऐसा नहीं, वैसे पिता आदि की वासना की अपेक्षा पुत्रादि की वासना भी पृथक् नहीं है ऐसा नहीं, किन्तु पृथक् ही है । इसके पर सूक्ष्म आलोचना करना आवश्यक है । जिस प्रकार नीलादि को देखने से उस एक स्वभाव वाले नीलादि से नीलादिवासना ही होती है, नहीं कि साथ में पीतादिवासना भी, इसी प्रकार एक ही स्वभाववाली वस्तु से एक ही 'पिता' आदि की वासना उत्पन्न हो सकेगी, किन्तु उससे भिन्न दूसरी पुत्रादिवासना भी नहीं। लेकिन अनुभव यह है कि एक पुरुष पिता है, पुत्र है, चाचा है, तो उसीसे पुत्र को पितृवासना, पिता को पुत्रवासना, भतीजे को चाचा की वासना होती है । अब ये वासनाएँ तो प्रत्येक भिन्न भिन्न हैं; वैसी अनेक वासनाएँ, यदि मूल पुरुष एक ही स्वभाव वाला हो, तो उस २५१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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