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________________ (ल० - स्वभावमात्रमनुत्तरम् :-) 'जातिभेदतो नैदति'त्यप्ययुक्तं, नीलात् पीतादिवासना - प्रसङ्गात् । तत्तत्स्वभावत्वान्नैतदि'त्यप्यसत्, वाङ्मात्रत्वेन युक्त्यनुपपत्तेः । न हि नीलवासनायाः पीतादिवत् पित्रादिवासनाया न भिन्नः पुत्रादिवासनेति निरू पणीयम् । (पं०) - परिहारान्तरमाशङ्क्याह 'जातिभेदतो' = रूपरसादिजातिविभागतो, 'नैतत्' = न रूपाद् रसादि-वासनापत्तिः । अत्यन्तभिन्ने हि रूपजाते रसादिजातिः, कथमिव ततो रसादिवासनाप्रसङ्ग इति । तदप्ययुक्तं, से व्यवहर्ता पुरुष को अपनी पूर्व वासना का परिपाक यानी उद्बोधन होता है जिसकी वजह से वह 'पिता' आदि व्यवहार करता है। उदाहरणार्थ, नाता पुत्र को दिखलाती है कि 'यह तेरा पिता है', यह व्यवहारार्थी माता का पुत्र प्रति संकेत हुआ। इसके द्वारा व्यवहर्ता पुत्र, अपनी पूर्ववासना उबुद्ध होने से पिता के प्रति 'पिता' शब्द का व्यवहार करता है। अतः इस व्यवहार एवं दूसरों के 'पुत्र' 'चाचा' इत्यादि के व्यवहार के कारण पिता में पितृत्वपुत्रत्वादि अनेकस्वभाव मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, अन्यान्य व्यवहर्ताओं की वासनावश विविध व्यवहार-प्रवर्तन उपपन्न हो जाएगा। यहां इतना ध्यान में रहे कि माता, पुत्र, पिता वगैरह क्षणिक होने पर भो, संकेतकारी मातृक्षण के सहकारवश वासनायुक्त पुत्रक्षण से उबुद्ध वासनाविशिष्ट पुत्रक्षण की उत्पत्ति होती है, तदनन्तर व्यवहारकर्तृ पुत्रक्षण का जन्म होता है ! वह 'पिता' ऐसा व्यवहार करता है, यह वासनामूलक हुआ, न कि किसी 'पितृत्व' नामक सत् स्वभावमूलक । मत कहना कि 'अगर पितृत्व ही असत् हो, तो असत् पर व्यवहार कैसे हो सके ?' क्योंकि कथा का विषय असत् होने पर भी कल्पित कथा का व्यवहार प्रवर्तमान दिखाई पड़ता है। सारांश, भिन्न भिन्न वासनावश विविध व्यवहार होता है।" बौद्धमत-खण्डन : बौद्धों का यह कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि व्यवहार वासनामूलक मानने पर भी यह स्वीकृत करना होगा कि वासनाओं का मूल व्यवहार के विषयभूत वस्तुएं हैं, इन वस्तुओं से वासना उत्पन्न होती है। अगर वस्तुनिरपेक्ष वासना पैदा होती हो तो वह या तो नित्य सत् होगी, अथवा आकाशपुष्पवत् बिल्कुल असत् होगी, क्योंकि उसका उत्पादक कोई कारण ही नहीं रहा । नियम है 'नित्यसत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् ।' अन्यनिरपेक्षता रूप हेतु से नित्य सत्त्व या असत्त्व सिद्ध होता है। जिसको किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं, अर्थात् जो किसी अन्य से उत्पन्न नहीं है वह नित्य सत् या असत् होता है। जगत में एक नित्य आकाशादि सत्पदार्थ और दूसरा आकाशपुष्पादि असत् ही ऐसे हैं कि जो उत्पन्न ही नहीं तो अन्योत्पन्न भी नहीं हैं। बाकी अनित्य सत्पदार्थ तो कारणसापेक्ष ही उत्पन्न होता है। वासना वैसी होने से व्यवहार के विषयभूत वस्तु से ही जन्म पाती है, और विविध पिता-पुत्रादिवासनाएं एकान्त एक ही स्वभाववाली वस्तु से पैदा नहीं हो सकतीं, वे तो वस्तु के पितृत्व, पुत्रत्वादि अनेक स्वभावों की अपेक्षा रखेंगी। फलतः वस्तु अनेकस्वभाव सिद्ध होती है। प्र० - एकान्त एकस्वभाववाली वस्तु से विविध वासना पैदा होने में क्या बाधा है ? उ० - बाधा यह, कि कृष्ण नीलादि वर्ण से रस-स्पर्शादि की विविध वासनाएं उत्पन्न होने लगेंगी जो कि अनुभव विरुद्ध हैं। अनुभव यह है कि रस का संस्कार वर्ण से नहीं, अपितु रस से ही पैदा होता है, स्पर्श का स्पर्श से ही ....... इत्यादि। लेकिन जब अपने ही एक स्वभाव से पिता-पुत्रादि अनेक वासनाओं का उत्पन्न होना मुनासीब माना है, तो एकस्वभाव वाले वर्ण से रसादि विविध वासनाएं क्यों उत्पन्न न हों ? २५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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