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(ल०-व्यवहारो न वासनामूलक:-) 'वासनाभेदादेवायमित्ययुक्तं, तासामपि तन्निबन्धनत्वात् । 'नैकस्वभावादेव ततस्ता इति', रू पाद् रसादिवासनापत्तेः ।।
(पं० -) अत्रैव पराकूतं निरस्यन्नाह वासनामेंदादेव' = व्यवहर्तृवासनावैचित्र्यादेव, न पुनश्चित्रकस्व - भावत्वाद्वस्तुनः, 'अयं' = पितृपुत्रादिव्यवहारो दृष्टान्ततयोपन्यस्तः, इति' = एतत्सुगतशिष्यमतम्, 'अयुक्तम्' = असङ्गतम् । ते हि निरंशैकस्वभावं प्रतिक्षणभङ्गवृत्ति वस्तु प्रतिपन्नाः, इति न तदालम्बनोऽयमेकस्मिन्नपि स्थिरानेकस्वभावसमर्पकः पितृपुत्रादिव्यवहारः, किन्तु प्रतिनियतव्यवहारार्थिकुशलकल्पितसंकेताहितविचित्रवासनापरिपाकत: कल्पितकथाव्यवहारवद् असद्विषय एव प्रवर्तते इति । कुतोऽयुक्तत्वमित्याह 'तासामपि' = वासनानां, न केवलं व्यवहारस्य, 'तन्निबन्धनत्वाद्' = व्यवहियमाणवस्तुनिबन्धनत्वाद्, अतन्निबन्धनत्वे 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वे'त्यादिप्रसङ्गात् । एवमपि किमित्याह 'नैकस्वभावादेव' = नैकान्तैकरूपादेव, 'ततो' = व्यवहारविषयवस्तुनः, 'ताः' = पित्रादिवासना इति । विपर्यये बाधकमाह 'रू पात्' = कृष्णनीलादेवर्णात्, ‘रसादिवासनापत्तेः' = रसस्पर्शादिविचित्रवासनापत्तेः, एकस्वभावादपि परैरेवानेकवासनाभ्युपगमात्।
वस्तुस्थिति भ्रांतिवश ऐसा भास होता है' यह भी आप नहीं कह सकते, क्योंकि ये 'पिता' 'पुत्र' आदि व्यवहार, उसके विषयभूत, पुरुष में रहे हुए पितृरूपता, पुत्ररूपता-पितृत्व, पुत्रत्व आदि को अधीन हैं। यह कैसे? - इस प्र? का उत्तर यह है कि वैसी प्रतीति होने की वजह । सर्वजन प्रतीत है कि पुरुष में सचमुच पितृरूपता, पुत्ररूपता वगैरह विद्यमान होते हैं। ऐसी सम्यक् प्रतीति को अप्रमाण नहीं कह सकते, अन्यथा सर्वत्र इसी ढंग से प्रतीति अप्रमाणभूत हो जाने से अविश्वास प्रसक्त होगा।
वासनामूलक विविध व्यवहार का बौद्धमत :
अब यहां ही बौद्ध का अभिप्राय दिखला कर इसका खण्डन करते हैं। बुद्ध के शिष्यों का यह मत है कि वस्तु अनेकस्वभाव सिद्ध करने के लिए दृष्टान्त रूप से जो पिता-पुत्रादि व्यवहारों का उपन्यास किया, वहां ऐसा नहीं है कि ये व्यवहार वस्तु के चित्र - अनेकस्वभाववश होते हैं। अर्थात् वस्तु स्वयं एक हो उनके विविध स्वभावों के कारण विविध व्यवहार हो सकते हैं ऐसी वस्तुस्थिति नहीं है; वस्तुतः विविध व्यवहार तो व्यवहर्ता पुरुष की विविध वासनावश होते हैं। व्यवहार करने वाला पुरुष 'पिता' व्यवहार की वासना से 'पिता' रूप से व्यवहार करता है, 'पुत्र'व्यवहार की वासना से वैसा व्यवहार करता है। फलतः व्यवहार के कारण वस्तु में अनेक स्वभाव मानने की कोई आवश्यकता है नहीं । बौद्धों का यह मन्तव्य है कि वस्तु निरंश एकस्वभाव होती है और प्रतिक्षण विनाशशील होती है। इसलिए पिता-पत्रादि-व्यवहार एक निरंश क्षणिक परुषवस्त को लेकर नहीं हो सकता है; क्योंकि अगर वस्तुस्वभाव के आधार पर विविध व्यवहार होता हो तब तो यह व्यवहार एक ही वस्तु में स्थिर (अक्षणिक) एवं अनेक स्वभावों का उपपादन करेगा। स्थिर इसलिए कि व्यवहर्ता पुरुष प्रथम क्षण में उन्हें देख कर द्वितीय क्षण में भी उन स्थिर स्वभाव के प्रति पिता-पुत्रादि व्यवहार कर सकेगा। लेकिन तर्क से सोचने पर वस्त द्वारा अनेकस्वभाव और स्थिर सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि वस्त में अनेकस्वभाव होने पर वस्त में भेद आ पड़ेगा; एवं स्थिर मानने पर भी अपने क्रमिक कार्यों के विविध सामर्थ्य क्रमशः उत्पन्न होने का मानना पड़ेगा, फलतः वस्तु क्षणिक ही सिद्ध होगी। अत: वस्तु निरंश - एकस्वभाव एवं क्षणिक सिद्ध होती है। तब विविध व्यवहार कैसे हो सकेगा, इसका उत्तर यह है कि कोई कुशल व्यवहारार्थी पुरुष द्वारा विरचित 'पिता' आदी संकेत
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