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(ल०-उपादानमात्रमनियामकम् :-) नोपादानभेदोऽप्यत्र परिहारः, एकस्यानेकनिमित्तत्वायोवात् ।
(पं० -) पुनराशङ्काशेषपरिहारायाह 'न' = नैव, 'उपादानभेदोऽपि' = न केवलं व्यवहरणीयपित्रादिनिमित्तो वासनाभेदः किन्तु व्यवहारकोपादानकारणविशेषोऽपि, वासनाभेदहेतुः, 'अत्र' = एकस्वभावे वस्तुनि अनेकव्यवहारासाङ्गत्ये प्रेरिते, 'परिहारः' = उत्तरम् । परो हि पुत्रादेर्वासनाभेदनिमित्तत्वे प्रतिहते सति कदाचिदिद - मुत्तरमभिदध्यात् यदुत "येयमेकस्मिन्नपि देवदत्तादावनेकेषां तं प्रति पितृपित्रादिरूपतया व्यवस्थितानां या पुत्रादिवासनाप्रवृत्तिः, सा तेषामेव स्वसन्तानगतमनस्कारलक्षणोपादानकारणभेदनिबन्धना, न व्यवहियमाण - वस्तुस्वभावभेदनिमित्तेति'; एतदपि अनुत्तरमेव । कुत इत्याह 'एकस्य' देवदत्तादेः, 'अनेकनिमित्तत्वायोगात्' = अनेकेषां पितृ-पुत्रादिव्यवहणां सहकारिभावायोगात् । ते हि तमेकं सहकारिणमासाद्य उपादानभेदेऽपि तथावासनावन्तो भवन्ति, न च तस्य तदनुगुणतावत्स्वभावदरिद्रस्यानेकसहकारित्वं युक्तम् ।
एकस्वभाव से कैसे उत्पन्न हो सकती है ?
'उपादानभेदवश व्यवहारभेद' की बौद्धयुक्ति :
वस्तु एकस्वभाव होने पर इससे अनेक वासना एवं व्यवहार होने की अनुपपत्ति है। इस असङ्गति के परिहारार्थ बौद्धों का शेष उत्तर यह है कि, "अनेक वासनाओं के प्रति सिर्फ व्यवहार-विषय- भूत पिता आदि एक स्वभाव वाला पुरुष ही निमित्त नहीं है, किन्तु 'पिता' आदि शब्द से व्यवहार करने वाले अनेक उपादानभूत पुरुष भी कारण है; और वे अनेक होने से, अनेक वासनाओं एवं अनेक व्यवहारों को जन्म दे सकते हैं।'' तात्पर्य व्यवहार-योग्य मूल पुरुष एक ही स्वभाव वाला रहने पर वह अपने पुत्रादि की 'पिता', 'पुत्र', 'चाचा', इत्यादि अनेक वासनाओं में निमित्त नहीं बन सकता, - यह खण्डन होने पर भी बौद्ध कदाचित् यह उत्तर दे सकते हैं कि "किसी देवदत्तादि एक ही पुरुष के प्रति जो पिता, पुत्र, चाचा, आदि रूप से संबद्ध हैं, वे उसके प्रति 'यह मेरा पुत्र', 'मेरा पिता', 'मेरा भतीजा', इत्यादि ख्याल रखते आये हैं, अर्थात् उस देवदत्तादि के प्रति उनके दिल में व्यवहारोपयोगी ऐसी पुत्र-पिता-भतीजा वगैरह की वासना प्रवृत्त होती है। यह अनेक वासनाओं की प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति व्यवहार विषय-भूत देवदत्तादि एक वस्तु के अनेक स्वभावों की अपेक्षा नहीं रखती है; किन्तु 'पुत्र' - 'पिता' आदि व्यवहार करने वाले पिता-पुत्रादि की क्षणधारा में अन्तर्गत मनस्कार यानी 'पुत्र' अनुभव, 'पिता' अनुभव, आदि की अपेक्षा रखती है। यह इस प्रकार :- वस्तुमात्र क्षणिक होती है, लेकिन प्रतिक्षण समान वस्तु उत्पन्न होती रहने से स्थिर-सी मालूम पड़ती है। पूर्व पूर्व क्षण की वस्तु उत्तरोत्तर क्षण की वस्तु के प्रति उपादान कारण कही जाती है। अब यहां देवदत्त का जो पिता है वह भी प्रतिक्षण पिता रूप में उत्पन्न होता है; और जिस क्षण में उसे देवदत्त के प्रति 'पुत्र' शब्द से व्यवहार-कर्ता के रूप में उत्पन्न होना है, उसकी पूर्व क्षण में उसे पुत्रवासना के स्वरूप में जन्म पाना होगा; और इस वासना के लिए इसकी भी पूर्व क्षण में 'पुत्र' - उल्लेखी अनुभव-कर्ता के रूप में उसे उत्पन्न होना होगा। तब यह आया कि देवदत्त के पिता की जो क्षण धारा चलती है उसके अन्तर्गत पुत्रोल्लेखी अनुभवक्षण यानी मनस्कारक्षण स्वरूप उपादानकारण विशेष से पुत्रवासना - क्षण रूप कार्य की प्रवृत्ति (उत्पन्न) हुई । एवं देवदत्त के पुत्र की क्षण धारा में उपादान स्वरूप पितृ-उल्लेखी अनुभवक्षण से कार्य रूप पितृवासना प्रवृत्त हुई । इन भिन्न भिन्न उपादान भूत वासनावश ही 'पुत्र', 'पिता' आदि अनेक व्यवहार होते हैं, नहीं कि व्यवहार-विषयी- भूत देवदत्त वस्तु के पुत्रत्व पितृत्वादि अनेक स्वभाव रूप निमित्तवश' ।
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