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(२) दूसरी साधारणासाधारणा हेतुसंपदा का उपन्यास इसलिए किया कि स्तोतव्य संपदा के निर्देश से स्तोतव्य कौन है यह जब अवगत हुआ, तब विद्वानों को यह जिज्ञासा होती है कि स्तोतव्य होने के लिए उसमें प्रधान साधारण-असाधारण निमित्त कौनसा विद्यमान है। प्रेक्षापूर्वकारी लोग ऐसी जिज्ञासा के पात्र होते हैं, अतः वह होना स्वाभाविक है। इस जिज्ञासा की तृप्ति के लिए इस दूसरी संपदा का उपन्यास आवश्यक है।
(३) दूसरी संपदा से जिज्ञासा तृप्त होने पर भी इसी स्तोतव्य के असाधारण हेतु की जिज्ञासा होती है, क्योंकि प्रेक्षापूर्वकारी लोग परंपरा से मूल शुद्धि के अन्वेषण में तत्पर होते हैं, तो प्रस्तुत विषय में खोजते हैं कि स्तोतव्य होने में परंपरा या मूल कारण क्या है। इस जिज्ञासा की तृप्ति के लिए यहां तीसरी असाधारण हेतुसंपदा रखी गई।
(४) इस तृतीय असाधारण हेतुसंपदा के उपन्यास से असाधारण हेतु का ज्ञान होने पर भी अब यह जिज्ञासित होता है कि उस स्तोतव्य का सामान्य उपयोग क्या है ? विचारक लोगों को इस तरह की जिज्ञासा होने में हेतु यह है कि वे फलप्रधान आरम्भ करने के स्वभाव वाले होते हैं इसलिए देखना चाहते हैं कि इस स्तोतव्य की स्तुति तो हम करें, किन्तु हमें स्तोतव्य का सामान्य उपयोग यानी फल क्या है ? ऐसी जिज्ञासा की तृप्ति के लिए चौथी सामान्योपयोग संपदा का उपन्यास किया गया।
(५) इस के द्वारा सामान्य उपयोग का ज्ञान होने पर भी उस उपयोग का हेतु क्या है ? इस विषय में प्रेक्षावान पुरुषों को जिज्ञासा होती है क्यों कि वे सामान्य प्रवृति नहीं बल्कि अन्वेषण में निपुण प्रवृति वाले होते हैं, दृष्टान्त में स्तुति प्रवृति करने के पहले खोज करेंगे कि स्तुति विषय (स्तोतव्य) का अमुक उपयोग किस हेतुवश संभावित है। इस जिज्ञासा के तृप्त्यर्थ पांचवी उपयोग के हेतुओं की संपदा रखी गई।
(६) इससे हेतुबोध होने पर, विचारकों को अरहंत प्रभु के सामान्योपयोग के बाद विशेषोपयोग जानने की इच्छा होती है, क्यों कि वे स्तोतव्य प्रभु की स्तुति आदि के किसी भी प्रयत्न के सामान्य स्वरूप एवं विशेष रूप फल के प्रति दृष्टि वाले होते हैं, ऐसे फल देखें तो प्रयत्न करे। इसलिए यहां जानना चाहते हैं कि स्तोतव्य का विशेष कार्य विशेषोपयोग क्या है ? स्तुतिकार महर्षि यह ज्ञात कराने के लिए छठवी संपदा में स्तोतव्य के ही विशेषोपयोग संपदा का उपन्यास करते है।
(७) अब इससे विशेष उपयोगों का ज्ञान होने पर भी प्रेक्षावान पुरुष विशेष निश्चयप्रिय होते हैं इसलिए जानना चाहते हैं कि स्तोतव्य प्रभु का विशेष स्वरूप यानी हेतुबद्ध स्वरूप क्या है ? इस जिज्ञासा के शमनार्थ सातवी स्तोतव्य के सकारण स्वरूपसंपदा का उल्लेख किया गया।
(८) इसका बोध होने पर भी प्रेक्षापूर्वकारी लोगों को यह जिज्ञासा होती है कि स्तोतव्य प्रभु क्या क्या स्वसमान फल दूसरों में पैदा करते हैं ? उन्हें ऐसी जिज्ञासा होने का बीज यह है कि वे स्वयं अति गंभीर एवं उदार होते हैं, तो अपने से कतई ऊंचे परम पुरुष भी क्या क्या स्वसमान फल का अन्यों में संपादन कराने की उदारता करते हैं यह गंभीरता से सोचते हैं । बस, इस जिज्ञासा की निवृत्त्यर्थ आठवी आत्मतुल्य परफलकर्तृत्व नाम की संपदा का उपन्यास किया गया।
(९) इससे स्वसमान फल का बोध तो हुआ, विचारक लोग दीर्घदर्शी होने के कारण देखना चाहते हैं कि स्तोतव्य प्रभु अंत में जाकर किस प्रधान अक्षय गुण, प्रधान अक्षय फल, एवं अभय के स्वामी होते हैं। उनकी ऐसी जिज्ञासा के निवारणार्थ यहां नौवी प्रधानगुणापरिक्षय-प्रधानफलाप्ति-अभय संपदा का उपन्यास किया गया।
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