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________________ (ल० - अर्हत्संपद्गुणानां प्रभावाः) - अनेनैव क्रमेण प्रेक्षापूर्वकारीणां जिज्ञासाप्रवृत्तिरित्येवं संपदामुपन्यासः, एतावत्संपत्समन्विताश्च निःश्रेयसनिबन्धनमेते , एतद्गुणबहुमानसारं विशेषप्रणिधाननीतितस्तत्तद्बीजाक्षेपसौविहित्येन सम्यगनुष्ठानमिति च ज्ञापनार्थम् ।। (पं०) एतद्गुणेत्यादि, एतद्गुणबहुमानसारम्, एतेषां = स्तोतव्यसंपदादीनां, गुणानां, बहुमानेन = प्रीत्या, सारं, स (एतद्गुणबहुमान) एव वा सारः यत्र, 'तत्सम्यगनुष्ठानं भवती'ति संबन्धः । कथमित्याह 'विशेषप्रणिधाननीतितः', विशेषेण = विभागेन, स्तोतव्यसम्पदादिषु गुणेषु प्रणिधानं = चित्तन्यासः, तदेव 'नीतिः' = प्रणिधीयमानगुणरूपस्वकार्यप्राप्तिहेतुः, तस्याः, 'तत्तद्वीजाक्षेपसौविहित्येन', 'तस्य' = चित्ररूपस्य गुणस्याहत्त्वभगवत्त्वादेः, बीजं = हेतुः तत्तदावारककर्महासस्तदनुकूलशुभकर्मबन्धश्च, तस्य अक्षेपः = अव्यभिचारस्तेन, सौविहित्यं = सुविधानं, तेन 'सम्यग्' = भावरूपम्, 'अनुष्ठानमिति च ज्ञापनार्थम्' एतच्च ज्ञापितं भवतीति भावः । अर्हत्संपद्गुणों के अचिन्त्य प्रभाव :प्र० - स्तोतव्यादि संपदाओं का प्रणिपातदंडक सूत्र में उपन्यास इस क्रम से क्यों किया? उ० - विचार पूर्वक कार्य करने वाले लोगों को अपनी वैसी विशेषताओं के कारण उपर्युक्त क्रम से ही जिज्ञासा होती चलती है, अतः इनकी तृप्ति के लिए तदनुरूप क्रम से ही संपदाओं का उपन्यास करना समुचित है। प्र० - परमात्मा को नमस्कार करने की प्रार्थना करनी है इसमें उनकी संपदाओं का उपन्यास क्यों किया? उ० - उपन्यास से, - (१) यह ज्ञापित करना है कि इतनी संपदाओं से संपन्न श्री अर्हत्परमात्मा मोक्षप्राप्ति में कारणभूत हैं, क्योंकि उन संपदा-गुणों की ऐसी महिमा है कि वे जीवों को मोक्षमार्ग की साधना में प्रेरक = उत्तेजक है । (२) दूसरा यह दिखलाना है कि प्रस्तुत संपदा-गुणों के प्रति प्रीति-बहुमान करने द्वारा ही सम्यग् अनुष्ठान हो सकता है, यदि अनुष्ठाता के द्वारा उन गुणों के उपर प्रधान रूप से प्रीति रखी जाए, तभी उसका कोई भी शुभानुष्ठान सम्यग् अनुष्ठान यानी भावानुष्ठान होता है। इसका कारण यह है कि अनुष्ठान को सम्यग् होने के लिए आवरणभूत कर्मों का हास एवं शुभ कर्मों की वृद्धि आवश्यक है, और इनकी सुविधा संपदा-गुणों के प्रीति-युक्त विशिष्ट प्रणिधान द्वारा अवश्य संपादित होती है। इस 'विशिष्ट प्रणिधान' का अर्थ यह है कि अर्हत्त्व, भगवत्त्व प्रमुख स्तोतव्यादि संपदागुणों में संपदाओं के विभागानुसार चित्त को स्थापित करना; अर्थात् उन संपदागुणों का विभागशः एकाग्र चिन्तन रखना । ऐसे प्रणिधान से आवरणहास-शुभोपार्जन होने का कारण यह कि संपदागुणों का वह प्रणिधान इतना प्रबल है कि वह एकाग्रता से चिन्त्यमान उन गुणों को अपने में पैदा करने तक में समर्थ होता है, अर्थात् गुण स्वरूप स्वकार्य तक की प्राप्ति कराता है, तब फिर उससे अशुभहास - प्राधोपार्जन क्यों न हो? यहां इतना निष्कर्ष निकलता है : (१) गुणसंपन्न परमात्मा मोक्षकारक है; परमात्मा के संपदाओं में, वर्णित अनन्यलभ्य गुण ऐसे हैं कि वे अवश्य मोक्ष हेतु बनें। (२) अरहंत प्रभु के संपदा-गुणों पर बहुमान शुभानुष्ठान को भावानुष्ठान बनाता है। (३) सम्यग् अनुष्ठान (भावानुष्ठान) के लिए अशुभ कर्म-हास एवं शुभ-कर्मोपार्जन आवश्यक है। २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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