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संपदां सोपपत्तिकत्व-सप्रभावत्वे (ल० - संपदां सोपपत्तिकत्वम्) - (१) इह चादौ प्रेक्षापूर्वकारीणां प्रवृत्त्यङ्गत्वात्, अन्यथा तेषां प्रवृत्त्यसिद्धेः प्रेक्षापूर्वकारित्वविरोधात्, स्तोतव्यसम्पदुपन्यासः । (२) तदुपलब्धावस्या एव प्रधानासाधारणासाधारणरूपां हेतुसम्पदं प्रति भवति विदूषां जिज्ञासा, तद्भाजनमेते इति तदुपन्यासः । (३) तदवगमेऽप्यस्या एवासाधारणरूपां हेतुसंपदं प्रति, परंपरया मूलशुध्यन्वेषणपरा एते, इति तदुपन्यासः । (४) तत्परिज्ञानेऽपि तस्या एव सामान्येनोपयोगसंपदं प्रति फलप्रधानारम्भ प्रवृतिशीला एते, इति तदुपन्यासः । (५) एतत्परिच्छेदेऽपि उपयोगसंपद एव हेतुसंपदं प्रति, विशुद्धिनिपुणारम्भभाजः एते, इति तदुपन्यासः । (६) एतद्बोधेऽपि स्तोतव्यसंपदं एव विशेषेणोपयोगसंपदं प्रति, सामान्यविशेषरू पफलदर्शिन एते, इति तदुपन्यासः । (७) एतद्विज्ञानेऽपि स्तोतव्यसंपद एव सकारणां स्वरू पसंपदं प्रति, विशेषनिश्चयप्रिया एते, इति तदुपन्यासः । (८) एतत्संवेदनेऽप्यात्मतुल्य-परफल - कर्तृत्वसंपदं प्रति, अतिगम्भीरोदारा एते, इति तदुपन्यासः । (९) एतत्प्रतीतावपि प्रधानगुणापरि - क्षयप्रधानफलाप्त्यभयसंपदं प्रति भवति विदुषां जिज्ञासा, दीर्घदर्शिन एते, इति तदुपन्यासः ।
(पं०) तद्भाजनमेत' इति, तद्भाजनं = जिज्ञासाभाजनम्, एते = प्रेक्षापूर्वकारिणः । समय अपने या गुरू के समान औरों के गुण का समावेश कर लेने से उन समानता वाले औरों का वस्तुस्थिति से समावेश हो ही जाता है। दूसरी बात यह है कि बुद्धिमान पुरुषों की 'एगंमि पूइयंमि सव्वे ते पूइया होन्ति' - एक की पूजा करने में सभी पूजित होते हैं - यह प्रवृत्ति निर्विचार नहीं किन्तु सूक्ष्म विचार यानी निपुण आलोचना पूर्वक होती है। इतनी प्रासङ्गिक चर्चा पर्याप्त है। इस प्रकार 'नमो जिणाणं जियभयाणं' की व्याख्या हुई ।
९वीं संपदाका उपसंहार :
'सव्वन्नूणं' से लेकर 'नमो जिणाणं जियभयाणं' पर्यन्त में प्रधानगुणापरिक्षय - प्रधानफलाप्ति - अभयसंपद् नाम की संपदा कही गई; क्यों कि तीन पदों से कथन यह किया गया कि अर्हद् भगवानने संसारावस्था में वीतराग होने के बाद जो केवलज्ञान -- केवलदर्शन याने सर्वज्ञता-सर्व दर्शिता स्वरूप प्रधान आत्मगुण प्राप्त किये वे मोक्ष में भी अक्षय रहते हैं । एसे अक्षय प्रधान-गुण वालों को ही शिव-अचल-अरोग इत्यादि स्वरूपवाला मोक्षस्थान प्राप्त हुआ है। एवं इसीसे वे अब जितमय यानी समस्त भयों को पार कर जाने वाले बने है।९
९ संपदाओं की युक्तियुक्तता और प्रभाव अब यहां नौ संपदाओं का इस प्रकार उपन्यास क्यों किया इसके हेतु बतलाते हैं। इसमें (१) पहली स्तोतव्य संपदा के उपन्यास का हेतु यह है कि प्रेक्षापूर्वकारी यानी विचार पूर्वक कार्य करने वाले पुरुषों की स्तुतिप्रवृति स्तोतव्य का आलम्बन कर के होती है, तब स्तोतव्य यह उस प्रवृत्ति का अङ्ग हुआ, तो अङ्गभूत उसका निर्देश करना चाहिए, इसलिए स्तोतव्य संपदा का प्रथम उपन्यास किया गया । स्तोतव्य अगर स्तुति प्रवृति का अङ्ग न हो तो उस स्तोतव्य का निर्देश क्यों किया जाय? स्तुति की प्रवृति यों ही की जाएगी ! लेकिन ऐसी स्तुति - प्रवृति होती नहीं है; कारण, इस तरह, बिना स्तोतव्य-निर्देश, प्रवृति करने लग जाय तो वहां प्रेक्षापूर्वकारित्व की क्षति है, वह उपपन्न नहीं हो सकता है। यों ही स्तुति करना यह विचारपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कही जा सकती इसलिए स्तोतव्यसंपदा कही गई।
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