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(ल० -) कथमेकपूजया सर्व्वपूजाभिधानं ? तथा चागमः ‘एगम्मि पूइयंमी, सव्वे ते पूइया होंति' । अस्ति एतद्, विशेषविषयं तु तुल्यगुणत्वज्ञापनेनैषामनुदारचित्तप्रवर्त्तनार्थं, तदन्येषां सर्वसंपत्परिग्रहार्थं, सङ्घपूजादावाशयव्याप्तिप्रदर्शनार्थं च ।
__(पं०) 'अनुदारे'त्यादि, 'अनुदारचित्तप्रवर्त्तनार्थम्' । अनुदारचित्तो हि कार्पण्यात् सर्व्वपूजां कर्तुमशक्नुवन्नैकमपि पूजयेद्, अतस्तत्प्रवर्त्तनार्थमुच्यते 'एगंमी'त्यादि । द्वितीयं कारणमाह 'तदन्येषां' = पूज्यमानादन्येषां भगवतां; 'सर्वसम्पत्परिग्रहार्थं च', सर्वाः = निरवशेषाः, सम्पदः = स्तोतव्यहेतुसम्पदादय उक्तरूपास्तासामवबोधनार्थं च; तेऽपि परिपूर्णसम्पद एवेति भावः । 'सङ्घपूजादौ' = सङ्घचैत्यसाधुपूजादौ, 'आशयव्याप्तिप्रदर्शनार्थं चे'ति तृतीयं कारणमिति।
(ल० - ) एवंभूतश्चायमाशय इति तदाऽपरागतहर्षादिलिङ्गसिद्धे वश्रावकस्य विज्ञेय इति । एवमात्मनि गुरुषु च बहुवचनमित्यपि सफलं वेदितव्यं, तत्तुल्यापरगुणसमावेशेन तत्तुल्यानां परमार्थेन तत्त्वात्, कुशलप्रवृत्तेश्च सूक्ष्माभोगपूर्वकत्वात् । अतिनिपुणबुद्धिगम्यमेतदिति पर्याप्तं प्रसङ्गेन । नमो जिनेभ्य जितभयेभ्य इति । सर्वज्ञसर्वदर्शिनामेव शिवाचलादिस्थानसंप्राप्तेजितभयत्वाभिधानेन प्रधानगुणापरिक्षयप्रधानफलाप्त्यभयसंपद् उक्तेति ॥ ९ ॥
___(पं० -) 'एवंभूतश्च' = व्यापकश्च, 'अयं' = सङ्घादिपूजाविषय आशयः, कुत इत्याह 'इति' = एवं यथा एकस्मिन् पूज्यमाने तथा, 'तदा' = एकपूजाकाले, 'अपरागतहर्षादिलिङ्गसिद्धेः', अपरेष्वपूज्यमानेषु सङ्घादिदेशेषु, आगतेषु = तत्कालमेव प्राप्तेषु, तेषु वा विषये आगतस्य = आरूढस्य हर्षपूजाभिलाषादिलिङ्गस्य सिद्धेर्भाव श्रावकस्य विज्ञेयो, नत्वन्यथा; तथाविधविवेकाभावेन पूज्यमानव्यतिरेकेणान्येषु हर्षादिलिङ्गाभावात् । 'कुशलप्रवृत्ते 'रिति, कुशलानां = बुद्धिमतां प्रवृत्तेः = 'एगंमि पूइयंमी'त्यादिकायाः ।
सङ्घपूजादि में आशय की व्यापकता इस प्रकार :- देखते हैं कि भाव श्रावक जब सङ्घ में से किसी एक की या किसी एक चैत्य (जिनबिम्ब) अथवा गुरुकी पूजा करता है तो वह द्रव्यश्रावक नहीं किन्तु भावश्रावक है; यह इसलिए कि जिनोक्त तत्त्व, धर्म एवं धर्मात्मा के प्रति हार्दिक श्रद्धा-बहुमानादि से संपन्न होने के कारण एक की पूजा करते समय भी पूजनीयता का आशय तो सभी के प्रति रहता है। यह आशय होने का इस प्रकार के चिह्न से सिद्ध है कि वहां अगर कोई दूसरे, श्रावक, जिनबिम्ब या गुरु आ जाएँ तो उनके प्रति भी उसे हर्ष, पूजाभिलाष होता है। यदि एक की पूजा करते समय भी औरों के प्रति पूज्य भाव का आशय न रहता हो तो क्यों हर्षित हो ? नये उपस्थित के प्रति पूजाभिलाष क्यों प्रगट हो? हर्षादि होता है इसी से सिद्ध होता है कि इसके हृदय में एक की पूजा के काल में भी पूज्यत्वभाव व्यापक यानी औरों के प्रति विद्यमान ही है। भावश्रावक के ही ऐसे व्यापक आशय की यह बात है, किन्तु दूसरे की नहीं; क्यों कि दूसरे में तो उस प्रकार का विवेक न होने से जिसकी पूजा वह करता है उससे अतिरिक्त के प्रति हर्षादि चिह्न नहीं होते हैं। वह पूजा तो करता है लेकिन व्यक्तिमात्र की। वह विवेक शून्य है, समझता नहीं कि यह पूजा गुणों की भी है, और गुणवाले तो अन्य भी पूजा के विषय में आ जाते हैं।
सारांश 'नमो जिणाणं' यहां बहुवचन का प्रयोग निरर्थक नहीं है। इसी प्रकार अपना जाति के लिये या एक गुण के लिए भी किया जाता बहुवचन - प्रयोग सार्थक सिद्ध होता है, निरर्थक नहीं । कारण यह है कि उस
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