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(ल० - नमस्कारफलेऽर्हन्तः कथं कारणम् ?-) ब्राह्मणैकरू पकदानोदाहरणं त्वनुपन्यसनीयमेव, रु पकादिव नमस्कारात्, ब्राह्मणानामिवार्हतामुपकारायोगात् । कथं तर्हि तत्फलमिति ? उच्यते, तदालम्बनचित्तवृत्तेः, तदाधिपत्यतः तत एव तद् भावात्; चिन्तामणिरत्नादौ तथादर्शनादिति वक्ष्यामः ।
(पं० -) 'तदालम्बनचित्तवृत्ते 'रिति = भगवदालम्बनचित्तवृत्तेः, नमस्काररूपायाः तत्फलमिति सम्बध्यते । नन्वेवं तर्हि न भगवद्भ्य इत्याशङ्क्याह 'तदाधिपत्यतो' = भगवदाधिपत्यतः । भगवन्त एव तच्चित्तवृत्तेस्तज्जनकहेतुषु प्रधानत्वेनाधिपतयः, ततः । तत एव'=भगवद्भ्य एव, तद्भावात्' क्रियाफलभावात् । कथमित्याह 'चिन्तामणिरत्नादौ तथादर्शनात्' = चिन्तामण्यादि (प्र० .... देः) प्रणिधानादेर्भवत् फलं चिन्तामणिरत्नादेर्भवतीति लोके प्रतीतिदर्शनात् ।
अनेक कारण है; लेकिन इनमें अर्हद् भगवान ही के आलम्बन वाली चित्तवृत्ति प्रधान कारण है इसलिए उन कारणों में भगवान अधिपति हुए; तब नमस्कार क्रिया का फल भगवान से ही हुआ यह कह सकते हैं । चिन्तामणि रत्न आदि में ऐसा देखा जाता है यह हम आगे कहने वाले हैं। चिन्तामणि आदि का प्रणिधान अर्थात् श्रद्धायुक्त एकाग्र चिन्तन करने से जो फल होता है यह चिन्तामणिरत्नादि से हुआ, ऐसी लोक में मान्यता देखते हैं। वहां ऐसा नहीं कहा जाता है कि फल प्रणिधान से हुआ, चिन्तामणि से नहीं । जैसे वहां चिन्तामणि से लाभ हुआ, ऐसे यहां अर्हत्परमात्मा से फल आया। दोनों स्थानों में प्रणिधान एवं चित्तवृत्ति तो द्वार है, नीचे के कारण हैं; अधिपति कारण चिन्तामणि और भगवान हैं।
एक की पूजा से सर्यों की पूजा कैसे ? :
प्र० - एक अर्हद् भगवान की पूजा करने से समस्त अर्हद् भगवान की पूजा हुई ऐसे निर्देश का क्या मतलब है ? निर्देशक आगम इस प्रकार पाया जाता है, - 'एगम्मि पूइयम्मि सव्वे ते पूइया होंति' एककी पूजा करने पर निखिल पूजित होते हैं।
उ० - बात सही है, ऐसा कथन सामान्य रूप से यानी, उत्सर्ग मार्ग के रूप में एक ही अर्हत्प्रभु की पूजा करने का विधान नहीं करता है किन्तु विशेष रूप से विधान करता है कि संयोगवश एक प्रभु की पूजा की जाए तब भी सब प्रभु की पूजा का लाभ मिलता है।
एसा विधान करने में तीन कारण है; .(१) सभी अर्हद् भगवान तुल्य गुण वाले होते हैं एसा ज्ञापित करने द्वारा कृपण दिल वाले जीवों को एक भी भगवान की पूजा में प्रवृत्त कराने के लिए 'एगंमि पूइयंमि....' इत्यादि सूत्र है। भिन्न भिन्न भगवान कमी-ज्यादे गुण वाले हो तो इनमें से एक को पूजने से क्या लाभ ?' - ऐसी शङ्का कृपण को हो सकती है, और वह सभी भगवान की पूजा, ज्यादे अर्थव्यय के भय से, करने को अशक्त हैं, ऐसी अवस्था में बिलकुल पूजा से वंचित न हो, किन्तु एक भी प्रभु की पूजा करे इस वास्ते यह सूत्र है।
• (२) जिनकी पूजा करते हैं इनके अलावा और सभी भगवान में भी इस प्रणिपात-दण्डक सूत्र में वर्णित स्तोतव्य - संपद्, हेतुसंपद् आदि समस्त संपद् होती है, यह सूचित करने के लिए भी यह सूत्र है। जिनशासन में भगवान की पूजा गुण की पूजा है, और सभी भगवान में तुल्य गुणसंपदा होने से अगर एक भी भगवान की पूजा की तो सबों के गुणसंपद् की पूजा हुई।
•(३) बहुवचन रखने में ही तीसरा कारण यह है कि इस के द्वारा सङ्घ, चैत्य, एवं साधु की पूजा आदि में आशय की व्यापकता प्रदर्शित करनी है। यह इस प्रकार, -
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