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'आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ॥१॥ आगमश्चोपपत्तिश्च संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥२॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद् विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं न बूयाद्धत्वसम्भवात् ॥३॥ तच्चैतदुपपत्त्यैव प्रायशो गम्यते बुधैः । वाक्यलिङ्गा हि वक्तारः सद्वाक्यं चोपपत्तिमत् ॥४॥ अन्यथातिप्रसङ्गः स्यात् तत्तया रहितं यदि । सर्वस्यैव हि तत्प्राप्तेरित्यनर्थो महानयम् ॥५॥
इत्यलं प्रसङ्गेन। स्वरूप कष - छेद - ताप शुद्धि है या नहीं; एवं, (२) उस आगम की आदि में, मध्य में एवं अन्तभाग में कहे हुए पदार्थों का परस्पर में विसंवाद (विरोध) तो नहीं खड़ा होता है न? विचार करने पर यह निश्चित हो जाए कि आगम कषादिपरीक्षा में पूर्ण रूपसे उत्तीर्ण है, एवं उसके आदि, मध्य और अन्तभागमें कोई परस्पर विसंवाद नहीं है, तब यह विचार त्रिकोटि-परिशुद्ध हुआ। ऐसे विचार को निर्दोषता वाला आगम प्रमाणभूत हैं । तो प्रवृत्ति भी मात्र आगम नहीं किन्तु आगमकी निर्दोषताके आधार पर करनी चाहिए; अर्थात् त्याज्य के त्याग और उपादेय के आदर की प्रवृत्ति विचारशुद्ध आगम के अनुसार होनी आवश्यक है। कहा गया है कि, (१) आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ॥'
(१)- आगम, अनुमान एवं ध्यानाभ्यासरस, इन तीनों साधनों द्वारा प्रज्ञा को संस्कारित करते करते उत्तम तत्त्व प्राप्त होता है। प्रज्ञा यह तत्त्वसन्मुख सरल मति है उसको उत्तम तत्त्व-प्राप्ति, तत्त्वसंवेदन यावत् परमात्मतत्त्व - साक्षात्कार कराने के लिए आगम पहला जरूरी साधन है। कारण यह है कि अतीन्द्रिय तत्त्वों में आगम और अनुमान प्रमाण होते हैं। आगम के द्वारा तत्त्व को जान तो लिया, किन्तु अनुमान यानी अन्वय-व्यतिरेकशुद्ध तर्क-युक्ति के द्वारा उसको निश्चित किये बिना वह निःशंक निश्चय रूपसे प्रज्ञा में जमता नहीं है, एवं कदाचित विरुद्ध तर्क आने पर संदेहविपर्यास होने का संभव भी है। तर्क से निश्चित करने पर भी तत्त्व का प्रकाश मात्र हुआ, परिणमन नहीं, एवं ज्ञानमात्र हुआ, अविचलित स्थिर धारणा नहीं, जिससे कि कभी विस्मृत न हो। इसलिए उस तत्त्व का श्रद्धायुक्त ध्यानाभ्यास करना चाहिए। श्रद्धा से वह स्वप्रतीतिसिद्ध होता है। श्रद्धा न हो तो मात्र इतना ही निर्णय रहता है कि 'अमुकशास्त्र ऐसे एसे तत्त्व कहता है, किन्तु स्वप्रतीति नहीं। तात्पर्य, तत्त्व तर्क से जमने पर श्रद्धा से हृदय में जचना जरूरी है। इससे मनमें मात्र प्रकाशित नहीं किन्तु परिणत होता है। अब उसके ध्यान का पुनः पुनः अभ्यास करना आवश्यक है। ध्यान से एकाग्र चिंतन होता है, और ध्यान के बारबार अभ्याससे तन्मयता होती है, यावत् साक्षात्कार होता है। प्रज्ञा को इस प्रकार तत्त्व के आगमबोध, तर्कशोधन, एवं श्रद्धासंपन्न ध्यानाभ्यास के द्वारा परिष्कृत करते करते उत्तम तत्त्वसंवेदन, तत्त्व साक्षात्कार होता है।
(२) यहां तत्त्वप्राप्ति में आगम और अनुमान को उपयुक्त क्यों कहा इसका स्पष्टीकरण करते हैं। अतीन्द्रिय पदार्थ एवं प्रत्यक्षसिद्ध भी यम-नियमादि के अतीन्द्रिय फल का यथार्थ बोध करने के लिए आगम
और युक्ति ही समर्थ हैं। कारण बोध की संपूर्ण सामग्री आगम और युक्ति, इन दोनों से पूर्ण होती है; क्यों कि प्रत्यक्ष से तो मात्र दृश्यमान - ऐन्द्रियक पदार्थों का ही ज्ञान होता है।
(३) अब यहां प्रश्नहो सकता है कि 'जगत में आगम तो कई कहलाते हैं, तब इनमें से किसको मान्य करें?' इसका उत्तर यह है कि जो आगम आप्त पुरुष द्वारा कहा गया है वही सद् आगम है, वही मान्य है; और आप्त का निर्णय समस्त दोषों का क्षय ज्ञात करने द्वारा किया जाता है। अर्थात् जिन्होंने राग - द्वेष - मोहादि
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