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________________ (ल० - त्रिकोटिशुद्धविचार:, ) तस्माद् यथाविषयं त्रिकोटिपरिशुद्धविचारशुद्धितः प्रवर्त्तितव्यमिति । उक्तं च, (पं०-) 'तस्मात्' = वचनमात्रस्याप्रामाण्यात्, 'यथाविषयं' = कषादिसर्वविषयानतिक्रमेण, 'त्रिकोटिपरिशुद्धविचारशुद्धित: ' = तिसृभिः कषच्छेदतापलक्षणाभिरादिमध्यावसानाविसंवादलक्षणाभिर्वा कोटिभिः, ‘परिशुद्धो' = निर्दोषो यो ‘विचारो' = विमर्श:, तेन या शुद्धिः = वचनस्य निर्दोषता, तस्याः सकाशात् 'प्रवर्त्तितव्यं' हेयोपादेययोः । कूपपतन के दृष्टान्त की समीक्षा करने में यह फलित होता है कि मात्र पतनकारण के संबन्ध में ही नहीं किन्तु उद्धरण - उपायान्वेषण के विषय में भी विचार करना आवश्यक है; कहिए, उपायों का अन्वेषण जो करते हैं वही विचाररूप है । विचार किये बिना कहां कुछ हो सकता है ? इसलिए यदि जीवों को ब्रह्मरूपता एवं भवकूपपतनादि संबन्धी वचनों के विषय में कुछ विचार नहीं करना है, तो यहां कूपपतित के उद्धार के उपाय खोजने संबन्ध में भी कोई एसा परामर्श आपके मतानुसार नहीं करना चाहिए कि किस उपाय से उसे बाहर निकाला जाए। अगर आप कहें कि 'वहां तो परमब्रह्म के आगमवचन का विषय अतीन्द्रिय होने से युक्ति - विचार का विषय नहीं है, इसलिए वहां विचार अकरणीय है, ' तब यहां भी युक्ति समान ही है, क्योंकि कूपपतित का उद्धरण, प्रयत्न करने पर भी, होगा या नहीं यह तो दैव के अधीन है; और दैव तो अतीन्द्रिय है, अर्थात् वह किस प्रकार का है यह अपनी इन्द्रिय एवं बुद्धि का विषय नहीं; अत: वह भी विचार का विषय नही होगा; आपके मतानुसार तो वचनमात्र काही विषय होगा। तब उद्धारणोपाय ठीक न जानने से उसके अधीन उद्धार की प्रवृत्ति क्यों होती है ? हां, इतना आप कह सकते हैं कि "उद्धरण हो सकेगा या नही यह तो शकुनशास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र इत्यादि एवं परामर्श द्वारा दैव की अनुकूलता या प्रतिकूलता देख कर जान सकते हैं इसलिए वहां विचार एवं प्रवृत्ति करनी योग्य है, तो उद्धारोपाय यह विचार का विषय हैं;" तब तो यही बात आगमके परमब्रह्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थ में भी समान है, क्योंकि वहां भी युक्ति और आगम के द्वारा परामर्श करना युक्तियुक्त है। इसलिए पहले जो आपसे कहा गया कि 'जीवों का परमब्रह्म से पृथक् होना सादि है या अनादि, सहेतुक है या निर्हेतुक, वह अचिन्तनीय है, विचार करने योग्य नहीं, ' - यह अयुक्त है । विचार करना आवश्यक है । । प्रवृत्तिनियामक त्रिकोटिपरिशुद्धविचारशुद्धि : अब, केवल वचनमात्र जब प्रमाण नहीं है, किन्तु विचार भी आवश्यक है तब वचनमात्र प्रवृत्ति का नियामक नहीं हो सकता है। प्रवृत्ति तो यथाविषय त्रिकोटिपरिशुद्ध विचार की निर्दोषता के आधार पर करनी चाहिए: यथाविषय का मतलब, - कष, छेद इत्यादि सर्व परीक्षाओं का उल्लंघन न कर विचारशुद्धि होनी जरूरी है । अर्थात् वचनपरीक्षा का पूरा प्रयोग अखत्यार कर शुद्ध परामर्श करना, और इसमें देखना कि वह परामर्श त्रिकोटिपरिशुद्ध हैं न ? 'त्रिकोटि' दो प्रकार की है, १. कष-छेद-ताप एवं २. आदि-मध्य-अन्त तीनों में अविसंवाद इनमें परिशुद्ध, यानी निर्दोष । कषादि परीक्षाका विवेचन पहले कर आये हैं। आदि, मध्य और अन्त उसी शास्त्र का ग्रहण करना, जिसके पदार्थ पर परामर्श करना है। तब, यह देखना चाहिए कि जिस आगम के आधार पर प्रवृत्ति करने को तैय्यार होते है, (१) वहां योग्य विधि - निषेध, तदनुकूल चर्या, एवं उनके अबाधक सिद्धान्त, इन तीन २३७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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