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________________ ( ल० बहुनमस्कारे लाभ:-) तदेवमर्हतां बहुत्वसिद्धिः, विषयबहुत्वेन च नमस्कर्तुः फलातिशयः सदाशयस्फातिसिद्धेः । आह, 'एकया क्रियया अनेकविषयीकरणे कैवाशयस्फातिः ॥ ' नन्वियमेव, यदेकया अनेकविषयीकरणम् । विवेकफलमेतत् । सकल दोषों का नाश कर वीतरागता प्राप्त की है वे ही परम आप्त पुरुष हैं; और उनके वचन प्रमाणभूत एवं उपादेय होते हैं। इसका कारण यह है कि वीतराग भगवान कभी असत्य वाक्य का उच्चारण न करें; क्यों कि असत्यभाषण का कोई कारण उनमें विद्यमान है ही नहीं । असत्य किसी पर रागवश, या द्वेषवश, या मोह - अज्ञान वश, अथवा हास्य भयादिवश बोला जाता है। ऐसे कोई दोष वीतराग में न होने से वे झूठ क्यों कहें ? कह सकते ही नहीं है, इसलिए वीतराग ही परम आप्त हैं और वीतराग के ही वचन मान्य करने योग्य हैं । I (४) ठीक हैं, लेकिन किसी के भी रागद्वेषादि तो अतीन्द्रिय है, तब आप्तपन वीतरागपन का निर्णय किस प्रकार किया जाय ? इसका उत्तर यह है कि बुद्धिमान लोग युक्तिउपपत्ति के द्वारा इसको प्राय: समझ लेते हैं। वाक्य के आधार पर वक्ता का माप निकलता है। सद्वाक्य हो तो वक्ता सत् है, असत् हो तो असत् । और सद्वाक्य युक्ति से घटमान दिखाई पड़ता है। वाक्य असत् हो असम्बद्ध हो, दृष्टेष्टविरुद्ध हो तो समझा जाए उसका वक्ता आप्त नहीं है। तो कई सद्वाक्यों के आधार पर आप्तता का निर्णय करने के बाद आप्त के सभी वचन स्वरूपं आगम मान्य किये जाते हैं, जो कि संपूर्ण तत्त्वदर्शन का साधन बनते हैं । (५) अन्यथा अतिप्रसङ्ग होगा; अतिप्रसङ्ग इस प्रकार कि अमुक वाक्य अगर युक्ति - उपपत्ति से रहित हो फिर भी वह सद्वाक्य करके मान्य हो, तो जगत में सभी के वचन सत् ठहरेंगे, चाहे युक्तिसिद्ध हो या युक्तिविरुद्ध हो । तब तो सभी आप्त और सभी मान्य ! हिंसादिप्रेरक वचन भी मान्य ! किन्तु सावधान ! तब तो यह महान अनर्थ होगा; हिंसादि भी धर्म होने की एवं नास्तिकशास्त्र - कथित पंचभूतमात्र ही तत्त्व, और आत्मा परलोक आदि का नास्तित्व होने की आपत्ति खडी होगी ! - इतनी चर्चा यहां पर्याप्त है। - 1 नमस्कार के विषय बहुत, तो फल अतिशयित: आत्माका अद्वैत, नित्य एक परमात्मा, निर्विचार आगमश्रद्धा, इत्यादि असत् सिद्ध होने के कारण, 'नमो जिणाणं जियभयाणं' सूत्र से विचारपूर्वक अर्हत् परमात्मा बहुत होने का सिद्ध होता है। उनके प्रति नमस्कार करने में नमस्कार के विषय में बहुत (अर्हत्) आने से ऐसे नमस्कार का फल एक के प्रति नमस्कार की अपेक्षा अतिशय होना सिद्ध होता है। कारण, ऐसे नमस्कार में शुभ आशय विस्तृतरूप में काम करता है । Jain Education International प्र० - उ० - नमस्कार क्रिया तो एक ही वार हुई; तब एक ही क्रिया में शुभाशय का विस्तार कैसे ? ओहो ! विस्तार इस प्रकार, कि एक ही क्रिया में अनेक को विषय कर लिया। ऐसा करना यह विवेक का फल है। विवेक यही कि जब नमस्कार करना ही है तो अनेक परमात्माओं का उद्देश रखकर नमस्कार क्यों न किया जाए ? क्रिया का श्रम वही है और फल में अनेक के प्रति नमस्कार में लाभ, मात्र एक परमात्मा का नहीं किन्तु अनेकों का बहुमान-सन्मान करने का रहता है। श्रम को शक्य अधिक लाभ से संपन्न बनाना यह विवेक है। २३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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