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(ल० - अद्वैतवचननिरसनम् - ) एतदपि प्रतिक्षिप्तं, श्रद्धामात्रगम्यत्वात्, दृष्टेष्टाविरुद्धस्य वचनस्य वचनत्वाद्, अन्यथा ततः प्रवृत्त्यसिद्धेः, वचनानां बहुत्वान्मिथो विरुद्धोपपत्तेः, विशेषस्य दुर्लक्षत्वात्, एकप्रवृत्तेरपरबाधितत्वात्, तत्त्यागादितरप्रवृत्तौ यदृच्छा, वचनस्याप्रयोजकत्वात्, तदन्तरनिराकरणादिति ।
(पं० -) 'एतदपि' = अनन्तरोक्तं, किं पुन: परम्परोक्तं प्राच्यमिति 'अपि' शब्दार्थः । 'प्रतिक्षिप्तं' = निराकृतं, कुत इत्याह 'श्रद्धामात्रगम्यत्वात्' = रुचिमात्रविषयत्वात् । ननु वचनादित्युक्तं, तत्कथमित्थमुच्यत इति? आह 'दृष्टेष्टे'त्यादि। 'दृष्टेष्टाविरुद्धस्य', दृष्टम् = अशेषप्रमाणोपलब्धम्, इष्टम् = वचनोक्तमेव, तयोरविरोधेन अविरुद्धस्य वचनस्य', 'वचनत्वात्' = आगमत्वात् । कुत इत्याह 'अन्यथा' = उक्तलक्षणविरहे, 'ततो' = वचनात्, ‘प्रवृत्त्यसिद्धेः' = हेयोपादेययोर्हानोपादानासिद्धे, कुत इत्याह 'वचनानां' शिवसुगत (प्र० .... सुत) सुरगुरुप्रभृतिप्रणीतानां, बहुत्वाद्' व्यक्तिभेदेन, एवमपि (प्र० .... एव ततः) किम् ? इत्याह मिथः' = परस्परं, 'विरुद्धोपपत्तेः' = नित्यानित्यादिविरुद्धार्थाभिधानात् । तर्हि विशिष्टादेव ततः प्रवर्तितव्यं (प्र० .... प्रवृत्तिः) इति ? आह 'विशेषस्य' दृष्टेष्टाविरोधलक्षणस्य, विचारमन्तरेण 'दुर्लक्षत्वात्' । (ननु) सर्ववचनेभ्यो युगपत् प्रवृत्तिरसम्भविन्येवेति एकत एव ततः प्रवर्तितव्यमिति ? आह, तत्र च 'एकप्रवृत्तेः' = एकतो वचनात्, प्रवृत्तेः' उक्तलक्षणायाः, 'अपरबाधितत्वाद्' = अपरेण वचनेन निराकृतत्वात् ततः किम् ? इत्याह 'तत्त्यागाद्' = बाधकवचनत्यागाद्, 'इतरप्रवृत्तौ' = बाध्यमानवचनप्रवृत्तौ, 'यदृच्छा' = स्वेच्छा । कथमित्याह 'वचनस्य' कस्यचिद् 'अप्रयोजकत्वाद्' = अप्रवर्तकत्वात् । एतदपि कुत इत्याह 'तदन्तरनिराकरणात्', तदन्तरेण = वचनान्तरेण, सर्ववचनानां निराकरणात्।
उद्धार का मार्ग अन्वेषणीय है ताकि वह फौरन उद्धार पाए । (४) ठीक इसी प्रकार संसारस्वरूप कुएँ में गिरे हुए जीवों का उद्धार करने में समर्थ पुरुष के लिए यही उचित है कि आगमप्रमाण से अतिरिक्त अन्य तर्क आदि प्रमाण का परामर्श अथवा जीव का पृथग्भाव सादि है या अनादि इसकी विचारणा छोड़ कर संसारकूप में पतित जीवों के उद्धार के उपाय की ही खोज की जाए। (५) अद्वैत पर यदि कोई प्रश करे कि 'जब सभी आत्माएँ एक परमपुरुष रूप ही हैं तब तो ब्राह्मण - क्षत्रिय - वैश्य - शुद्रों के वर्णभेद का विलोपादि हो जाएगा; अर्थात् अपने नियत आचार छोडकर दूसरे वर्ण के आचार करने लगेंगे! एवं विलोप की आपत्ति की तरह दूसरी आपत्ति यह है कि स्वीय आचार और पर के आचार की जो पृथक् २ परंपरा चली आती है इनका सांकर्य (परस्पर संमिश्रण) सिद्ध होगा, क्योंकि मूल में तो अद्वैत ही है अद्वितीय परमपुरुष ही है। फलतः वर्णों के अलग अलग निश्चित स्वतन्त्र आचार सिद्ध नहीं होंगे।' - ऐसा अगर कोई कहे, तो उत्तर यह है कि यह आपत्ति न्याय से अयुक्त है, क्योंकि परमब्रह्म में तो अद्वैत है अर्थात् परमपुरुष अद्वितीय एक ही है, तो उसमें ब्राह्मणादि वर्णविभाग है ही नहीं। हां, कह सकते हैं 'वहां वर्णविभाग मत हो, लेकिन उसके अंशभूत आत्माओं में तो होगा, किन्तु यहां जीवात्माओं में दरअसल तात्त्विक रीति से देखा जाए तो मुक्त एवं अमुक्त ऐसे दो ही विभाग हैं, इसलिए यहां भी वर्णविभाग वस्तुस्थिति से है ही नहीं तो इनके वर्णव्यवस्था के विलोप आदि तात्त्विक (वास्तविक) नहीं हो सकता है।" इस प्रकार अद्वैतमत के अन्य वचन भी उसके समर्थन में लिए जाते हैं।
अद्वैतमत-समर्थक वचनों का खण्डन : दृष्टेष्टाविरुद्ध ही आगम प्रमाण :
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