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________________ (आत्मसर्वगतत्वखण्डनम् - ) न विभूनां नित्यानां चैवं प्राप्तिसंभवः, सर्वगतत्वे सति सदैकस्वभावत्वात् । विभूनां सदा सर्वत्रव भावः, नित्यानां चैकरू पतयावस्थानं, तद्भावाव्ययस्य नित्यत्वात् । अतः क्षेत्रासर्वगतपरिणामिनामेवैवप्राप्तिसंभव इति भावनीयम् । तत् तेभ्यो नम इति क्रियायोग इति ॥ ३२ ॥ प्रकार संसारी अवस्था में वह समग्र द्रव्य रूप से नित्य होती हुई स्व-स्व देहप्रमाण संकुचित-विकसितआत्मप्रदेश (प्रदेश द्रव्य का अति सूक्ष्म अंश) वाली होती है; अतः इसका यहां से जा कर सिद्धिस्थान को प्राप्त करना युक्तियुक्त है। सारांश क्षेत्र-सर्वगत यानी समस्त आकाश-व्यापी नहीं किन्तु अमुक ही आकाशभाग प्रमाण एवं परिणामी नित्य यदि आत्मा हो तभी सिद्धिस्थान को संप्राप्त होना संभवित है, युक्तियुक्त है, - यह विचारणीय है, बुद्धिग्राह्य है। विभुमत-समर्थक युक्तियों का खण्डन :- आत्मा अगर विभु हो सर्वव्यापी हो तो 'जीव मर के स्वर्ग में गया' -- ऐसा कहना झूठा होगा। यदि कहें - 'नहीं, इसका अर्थ यह है कि जीव इस शरीर से असंबद्ध हो स्वर्गीय शरीर से संबद्ध हुआ', तब यह कैसे? जीव सर्वव्यापी होने से यहाँ है ही और देह भी पड़ा है, तो वह इस देह से असंबद्ध कैसे? यदि कहें 'अवच्छेद्यावच्छेदकता आदि किसी संबन्ध से असंबद्धता-संबद्धता विवक्षित है.' तो ऐसा संबन्ध प्रमाण-सिद्ध नहीं है; क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष लगने से इसका ज्ञान नहीं हो सकता। यह अन्योन्याश्रय इस प्रकार - अवच्छेदकता संबन्ध का मतलब है कि उदाहरणार्थ आत्मा को सख-द:ख के उपभोग होने का जो साधन है वह अवच्छेदक कहलाता है, उसमें रहा अवच्छेदकता धर्म यही संबन्ध है। शरीर अवच्छेदक याने उपभोग-साधन है, और आत्मा की अपेक्षा यह अवच्छेदक है, अतः आत्मा अवच्छेद्य हुई । अब देखिए कि ऐसी अवच्छेदकता ज्ञात होती तभी शरीरत्व निर्णीत होगा, और अवच्छेदकता का भान शरीर के भान पर अवलम्बित है। जगत में शरीर तो कई होते हैं, लेकिन इस शरीर में उपभोग होगा ऐसा निर्णीत हो तब इसके साथ अवच्छेदकता संबन्ध होने का निश्चित होगा; और अवच्छेदकता संबन्ध का पहले निर्णय होने के बाद ही यह इस आत्मा का शरीर है वैसा निर्णीत हो सकेगा। यह अन्योन्याश्रय दोष है। इसलिए आत्मा यदि व्यापक हो तो एक शरीर के साथ संबद्ध और दूसरे शरीर के साथे असंबद्ध, ऐसा युक्तिसिद्ध नहीं है। यह तो आत्मा मध्यम परिमाण वाली हो और देह के साथ अन्योन्य प्रदेशानुविद्धता रूप संबन्ध हो तभी इस देह से दूसरे देह में गया ऐसा व्यवहार हो सकता है, और अन्योन्याश्रय यानी परस्पराश्रय दोष नहीं लगता है। वैशेषिकदर्शनने यह जो कहा था कि 'आत्मा को विभु मानेंगे तभी दूर देश में इसका संबन्ध रहने से उसके अदृष्ट (भाग्य) का भी वहीं अपने लिए किसी उत्पद्यमान वस्तु के निमित्तों के साथ संबन्ध हो सकेगा।' - यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अदृष्ट यानी कर्म खुद लोहचमक की तरह ऐसा पदार्थ है कि वह दूर रहते रहते भी कार्य उत्पन्न कर सकता है। फिर आत्मा को विभु मानने कि कोई आवश्यकता नहीं । मध्यम परिमाण होते हुए भी वायु की तरह छोटे बडे शरीर में उसका संकोच विकास होने से नाश की भी आपत्ति नहीं है। सो परमात्मा सर्वथा शरीरादि को छोडकर सिद्धिगतिस्थान को प्राप्त करते हैं। ऐसे परमात्मा के प्रति मेरा नमस्कार हो, - इस प्रकार 'नमोत्थु' क्रिया योजित की जाएगी। २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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