SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल० - 'सिद्धिगतिनामधेयस्थानसंप्राप्त' शब्दार्थः) तथा सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति 'सिद्धिः' लोकान्तक्षेत्रलक्षणा । सैव च गम्यमानत्वाद् गतिः । सिद्धिगतिरेव 'नामधेयं' यस्य तत् तथाविधिमिति । 'स्थानं' प्रागुक्तमेव । इह च स्थानस्थानिनोरभेदोपचारादेवमाहेति । 'संप्राप्ताः' इति, सम्यग् = अशेषकर्मविच्युत्या स्वरूपगमनेन परिणामान्तरापत्त्या प्राप्ताः । अर्थ पहले कह आये हैं। प्र० - शिव, अचल इत्यादि स्वरूप तो मुक्त परमात्मा के हैं, तब यहां उन्हें स्थान के विशेषण रूप में देने से क्या असमञ्जसता नहीं है ? उ० - नहीं, स्थान और स्थानी (स्थान वाले) के कथंचिद् अभेदोपचार की विवक्षा से यह प्रतिपादन किया गया है। व्यवहार में ऐसा प्रसिद्ध है; उदाहरणार्थ, नगर या देश में बहुत धनिक, सुखी, या उदार नीतिमान लोग होने पर कहा जाता है कि यह नगर या देश धनवान है, सुखी है, उदार है, नीतिमान है। इसी प्रकार सिद्धिस्थान-वासी का सिद्धिस्थान में अभेदोपचार कर यहां सिद्धिस्थान को शिव. अचल इत्यादि कहा। ऐसे स्थान को परमात्मा संप्राप्त हैं, अर्थात् 'सम्यग्' यानी समस्त कर्मों के क्षय पूर्वक अपने शुद्ध स्वरूप में प्रगट हो कर सांसारिक वैभाविक परिणति में से स्वाभाविक परिणति में आरूढ बन, 'प्राप्त' है। अनादि अनंत काल से आत्मा में कर्मोपाधिवश शुद्ध आत्म-स्वभाव दब कर देहधारित्वादि विभाव-परिणाम आत्मा में चला आता था। अब कर्मोपाधि का आमलचल नाश कर देने से विभाव-परिणाम छोड़ कर परमात्मा अनन्त ज्ञानादिमय निरञ्जन-निराकार शुद्ध स्वभाव-परिणाम में आरूढ हो सिद्धि स्थान को प्राप्त करते हैं। वैशेषिकमान्य आत्मविभुत्व-नित्यत्व का खण्डन :- इस पृथ्वी पर से जा कर सिध्धि-स्थान को प्राप्त करना, अर्थात् यहां से वहां पहुँच जाना यह, आत्मा अगर विभु एवं नित्य हो तो, शक्य नहीं है; कारण विभु होने से सर्वगत (सर्वव्यापी) और नित्य होने से सदा एक स्वभाव वाली है। विभुत्व से वैशेषिक लोग सर्वोत्कृष्ट परिमाण मानते हैं । आत्मा यदि मूलतः विभु है तो एसे परिणाम वाली होने से सर्वगत है, सर्वव्यापी है. इसका हमेशा, सर्वत्र सद्भाव है। तो सिद्धिस्थान में भी इसका अनादि से सद्भाव है, तब मोक्ष होने पर प्राप्त होने का कहां रहा? इस प्रकार अगर नित्य है तो नित्य पदार्थों का तो सदा एक ही स्वरूप से अवस्थान होता है फिर संसारी परिणाम को छोड कर सिद्ध (मुक्त) परिणाम में जाने की बात कहां रही ? 'नित्य' का लक्षण यही है कि 'तद्भावाव्ययं नित्यम्', - अर्थात् वस्तु स्वरूप का व्यय न होना, नाश न होना यह नित्य अगर नाश हो तो अनित्य कहलायेगा । आत्मद्रव्य यदि अनादि से संसारी स्वरूप वाला है तो एकान्त नित्य होने की वज़ह उस स्वरूप का नाश नहीं हो सकता, परिवर्तन नहीं हो सकता। प्र० - तो क्या आप आत्मा को नित्य मानते ही नहीं ? उ० - मानते हैं लेकिन वैशेषिकादि एकान्तदर्शन की तरह सर्वथा नित्य नहीं किन्तु कथंचिद् नित्य, परिणामी नित्य मानते हैं, नित्यानित्य मानते हैं। आत्मा चेतन द्रव्य रूप से नित्य है, क्योंकि उस चेतन द्रव्यस्वरूप का कभी व्यय यानी नाश नहीं होता है; और मनुष्य, देव, एवं ज्ञानित्व, दर्शनित्व इत्यादि रूप से अनित्य है, क्योंकि उनका व्यय होता है। तात्पर्य, आत्मा द्रव्य स्वरूप से नित्य रहती हुई मनुष्यादि भावों में परिणत होती है, मनुष्यादि भावों का परिणाम पाती है; इसलिए वह परिणामी नित्य है; तो सिद्धत्व परिणाम भी पा सकती है। इसी २२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy